■ साहित्यिक पोस्टमार्टम…
■ भूलिएगा मत…
【प्रणय प्रभात】
भले ही यह साहसिक कारनामा व्यंग्य के माध्यम से हुआ हो मगर हुआ है। साहित्य में रचनाओं व पुस्तकों की समीक्षाएं होती रही हैं। यह सम्भवतः पहली बार हुआ है जब किसी “समीक्षा” की समीक्षा की गई है। वो भी रचनात्मक स्तर पर। उद्देश्य जबरन समीक्षक बनने का चाव रखने वालों को सचेत कराना है कि बिना पढ़े कुछ भी लिख देना अब चलने वाला नहीं है। बिना पढ़े बोल सकते हो, वो भी राजनीति के अखाड़े में उतर कर। साहित्य के मैदान में खिलवाड़ आसान नहीं होगा। हो सकता है कि आज के इस अभिनव प्रयोग के बाद समीक्षाओं की वैचारिकता व प्रमाणिकता की कसौटी पर घिसाई का क्रम आरंभ हो कर एक नई विधा का रूप धारण कर ले। आपके लिए व्यंग्य रूप में उक्त सच्चा वाक़या गत दिवस प्रस्तुत किया जा चुका है। अवश्य पढ़िएगा- “एक समीक्षा की समीक्षा।”