■ सामयिक आलेख
#वैचारिक_शंखनाद
■ पलायन नहीं प्रतिकार करें!
【प्रणय प्रभात】
“अपना घर, अपनी बस्ती, अपना शहर, अपना वतन आख़िर क्यों छोड़ा जाए? जिसे बरसों के श्रम से सजाया-संवारा और अपना बनाया गया। घर या शहर की जगह हम उसके आसपास व्याप्त नकारात्मक ऊर्जा और विकृत परिदृश्यों को क्यों न हटाएं? जो प्रायः हमारे अवसाद की वजह बन रहे हैं। पलायन के बजाय अपने इर्द-गिर्द जमा निष्क्रियों, उन्मादियों, अवसरवादियों और उदासीनो को अलविदा क्यों न कहें? सलाह सबसे अच्छे, सच्चे, हितैषी और विवेकशील मित्र “समय” की है। इस नेक सलाह पर अमल में शायद कोई हर्ज भी नहीं।
लिहाजा, अच्छे जीवन के लिए हृदय और मस्तिष्क सहित संबंधों व सरोकारों में “स्वच्छता अभियान” आरंभ करें और उसे दृढ़ता व प्रतिबद्धता के साथ निरंतर जारी रखें। हर दिन आत्म-केन्द्रितों, आत्म-मुग्धों व पर-निंदकों को मुक्ति दें। मात्र चार माह में सुखद, अनुकूल व सकारात्मक परिणाम सामने आने लग जाएंगे। जो सन्देश पढ़ पा रहे हैं वो सब नए व निर्णायक साल में इस विचार को कार्य-रूप दे सकते हैं। आज से नहीं बल्कि अभी से। मेरा दृष्टिकोण आप मेरी इन पंक्तियों से भली-भांति समझ सकते हैं-
“मन भी हल्का रहे दिल न भारी रहे।
जोश के शह पे बस होश तारी रहे।
जंग अपने से हो जंग अपनो से हो
है ज़रूरी अगर, जंग जारी रहे।।”
जंग से अभिप्राय हिंसा या संघर्ष नहीं प्रतिकार या प्रतिरोध से है। वो भी अहिंसक, वैचारिक और पूरी तरह रचनात्मक। जो हमारे जीवन को “कुरुक्षेत्र” के बजाय “अवध” बना सके।
स्मरण रहे कि “आशंका” आपके विचलित होने की वजह बनती है। आशंकाओं को जन्म सवार्थपूर्ण नीतियों से मिलता है। जिन्हें पोषित करने का काम “भेड़ चाल” या “महिष-वृत्ति” वाले लोग मामूली व तात्कालिक लाभ के लिए करते हैं। आप यदि उनके प्रभाव में आकर हताशा से भरी प्रतिक्रिया करते हैं, तो आशंकित करने वालों का उद्देश्य पूरा हो जाता है। इसलिए भ्रामक बातों से प्रेरोत व प्रभावित होना बंद करें। अपनी संस्कृति, अपने धर्म, अपने ईष्ट, अपनी राष्ट्रीयता और सिद्धांतों के प्रति “कट्टर” नहीं “दृढ़” रहें। भरोसा करें कि आप भय और आशंका से उबर कर सच को सहर्ष स्वीकार कर पाएंगे। पलायन-वादी सोच रखने वालों के सामने मैंने तमाम बार अपना सवाल अपने अंदाज़ में रखने का प्रयास किया है। आज भी कर रहा हूँ। अपनी इन पंक्तियों के माध्यम से
“मुर्दे जहां के हैं उसी मिट्टी में गढ़ेंगे,
मुमकिन नहीं कभी जो भला उसका ज़िक्र क्यों?
जिनकी जड़ें ज़मीन से अच्छे से जुड़ी हैं,
उन बरगदों से पूछिए आंधी की फ़िक़्र क्यों??”
कहने का आशय बस इतना सा है कि दोष न यमुना का है, न उसके विषाक्त जल का। दोषी उसमें बसा वैमनस्य और द्वेष-रूपी “कालियादह” है। जिसका मर्दन आपको हमको मिलकर करना होगा। पावन “मधुपुरी” को “कंस की मथुरा” बनाने वाली कुत्सित विचारधाराओं से सामूहिक संघर्ष अब समय की मांग है। जिसके लिए समूची मानवता को दानवता के विरुद्ध खड़ा होना पड़ेगा। वो भी जाति-धर्म, मत-सम्प्रदाय जैसे भेदभावों की सीमाओं से पूरी तरह बाहर निकल कर। ताकि प्रत्येक भारतीय गर्व के साथ “न दैन्यम, न पलायनम” का उद्घोष कर अभिव्यक्ति की वास्तविक व मर्यादित स्वाधीनता को रेखांकित कर सके।
आम जनहित व राष्ट्रहित से जुड़ी आज की अपनी बात को अपनी इन चार पंक्तियों के Tसाथ विराम देता हूँ कि-
“ख़ुद-बख़ुद झुक जाएगा हर एक सिर,
तान के सीना निकलना सीख लो।
डर के कब तक बस्तियां छोड़ेंगे आप,
सांप के फन को कुचलना सीख लो।।”
सांप दूषित विकारों के, प्रदूषित विचारों के। अलगाव, आतंक और कुकृत्यों के। हिंसा, उत्तेजना व उन्माद के। जिन्हें दूध के कटोरे भर कर देने का काम राजनीति कर रही है।
जय हिंद, वंदे मातरम।।