■ सामयिकी/ बहोत नाइंसाफ़ी है यह!!
#सामयिकी-
■ ओल्ड पेंशन बनेगी बड़ा मुद्दा…?
【प्रणय प्रभात】
“आदमी दो और गोलियां तीन! बहोत नाइंसाफ़ी है ये, बहोत नाइंसाफ़ी है।”
वर्ष 1975 में रजतपट पर आई ब्लॉक-बस्टर फ़िल्म “शोले” का यह डायलॉग भला कौन भूल सकता है। जो गब्बर सिंह अपने नाकारा साथियों की ज़िंदगी का फ़ैसला करने से पहले बोलता है। लगता है यही संवाद मामूली बदलाव के साथ अब राज्य कर्मचारियों को बोलना पड़ेगा। वो भी पूरी दमखम के साथ चुनावी दंगल से पहले। बदले हुए हालात में गब्बर का रोल उन कर्मचारी संगठनों को अदा करना पड़ेगा, जो झूठे आश्वासन का झुनझुना लेकर सत्ता की गोद मे बैठते आए हैं। यदि 2024 के आम चुनाव से पहले 2023 में संगठन ताल ठोकने से चूके तो उनके पास भविष्य में बाल नोचने के सिवाय शायद ही कोई चारा बचेगा। क्योंकि इस बार की रहम-दिली उनके अपने लिए मुसीबत का सबब बनेगी। नहीं भूला जाना चाहिए कि कुछ राज्य अपने कर्मचारियों को वह हक़ लौटा चुके हैं, जो “अटल सरकार” के कार्यकाल में छीन लिया गया था।
गौरतलब है कि बीते कुछ महीनों से “ओल्ड पेंशन” की बहाली को लेकर दबी हुई सी आवाज़ें उठती आ रही हैं। यह अलग बात है कि मांग की गूंज धमकदार न होने की वजह से सत्ता के नक्कारखाने में तूती से अधिक कुछ साबित नहीं हो सकी है। जिसकी बड़ी वजह कर्मचारियों की कमज़ोर इच्छाशक्ति के साथ कुछ संगठनों की सत्ता-भक्ति भी है। जो मठाधीशों से मलाई के चक्कर में खुरचन को अपना सौभाग्य मानते आ रहे हैं। कर्मचारी नेताओं के इसी छल के कारण पूर्ववर्ती कई आंदोलन निर्णायक मोड़ पर पहुंचने से पहले टांय-टांय फुस्स हो चुके हैं। जबकि समय की मांग एक परिणाममूलक आंदोलन की है।
चर्चाएं तो यहां तक हैं कि प्रदेश की सरकार “पुरानी पेंशन” की बहाली को लेकर कतई गंभीर नहीं है तथा “अटल टेंशन स्कीम” पर ही अडिग रहने के मूड में है। चर्चाएं तो “ओल्ड पेंशन बहाली” के लिए मजबूर होने की स्थिति में “कट-मनी फार्मूला” लागू करने तक की भी हैं। जिसके तहत पुरानी पेंशन देने के एवज में कर्मचारियों की वो राशि हड़पी जा सकती है, जो “न्यू पेंशन स्कीम” के अंतर्गत हर महीने काटी जाती रही है। चुगने आई चिड़िया की पूंछ काटने वाला इस तरह का कोई भी प्रयास सफल न हो। यह भी कर्मचारी संघों की बड़ी ज़िम्मेदारी होगा। वैसे भी कर्मचारियों के वेतन से कटने और सरकार की ओर से मिलाई जाने वाली रक़म की स्थिति भी संदेह से परे नहीं है। इस कटोत्री व अंशदान के समय पर सही जगह जमा न होने की अटकलें भी समय-समय पर सिर उठाती आ रही हैं।
अनुत्पादक योजनाओं और थोथे कार्यक्रमों पर पानी की तरहः पैसा बहाने वाली सरकार निःसंदेह आर्थिक संकट का रोना 2023 के चुनाव में भी रोएगी। जिसके विरुध्द संगठनों को मज़बूत तर्क व तथ्यों को हथियार बनाना पड़ेगा। बेहतर होगा कि संगठन अभी से उन तथ्यों का संकलन शुरू करें, जो प्रदेश की आर्थिक स्थिति को रसातल की ओर ले जाने वाले साबित हो रहे हैं। ऋषि चार्वाक की नीति पर चलती सरकार से तीखे व साहसिक सवाल पूछने के लिए कर्मचारियों के परिवारों को भी तैयार रहना होगा, क्योंकि भविष्य अकेले कर्मचारी नहीं परिजनों व आश्रितों का भी दांव पर लगा हुआ है। इस लिहाज से शिवराज सरकार पर इस मांग को लेकर दवाब बनना समय की मांग है। कांग्रेस शासित राज्यों में यह सौगात कर्मचारियों को दी जा चुकी है। नवगठित हिमाचल सरकार ने भी इस दिशा में अपना वादा पूरा कर दिया है। जबकि मध्यप्रदेश सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी है।
सवाल यह भी उठना चाहिए कि जिस प्रदेश में चार दशक सेवा देने वालों को पेंशन देने की क्षमता नहीं, उस राज्य में चार दिनों के लिए चुने गए माननीयों को आजीवन पेंशन व अन्य सुविधाएं क्यों? यही सवाल राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में भी शिद्दत से उठाए जाने की दरकार है। जिसका सूत्रपात 2023 में होना ज़रूरी है। राष्ट्र-निर्माण और विकास का ठेका सिर्फ़ आयकर-दाता मध्यवर्गीय नागरिकों का हो क्यों? यह सवाल भी मंझोले कर्मचारियों और कारोबारियों को मिलकर उठाना होगा। जिनकी जेबें कथित राष्ट्रवाद के उस्तरे से लगातार काटी जा रही है। वो भी इसलिए ताकि सत्ता के सूरमा मुफ्तखोरों को रेवड़ियां बांट कर राजा बलि की तरहः सिंहासन पर बने रहें। एक देश के अनेक राज्यों में एक समान पेंशन क्यों नहीं, यह सवाल अब उठना लाजमी हो चुका है। इससे भी कहीं बड़ा सवाल यह कि किसी एक ही राज्य में आधे कर्मचारियों को नई व आधों को पुरानी पेंशन कितनी न्यायोचित?
कुल मिलाकर इस बार का चुनाव राष्ट्रीय नहीं राज्य के अपने हित से जुड़े मुद्दों पर केंद्रित होना चाहिए। मतदाताओं को भावनात्मक के बजाय भविष्य के लिहाज से व्यावसायिक रुख अपनाना चाहिए, ताकि उसके हितों के साथ तमाम बार हो चुके छल की पुनरावृत्ति न हो सके। मूर्ख मतदाता धूर्त सियासत के बबूल सींच कर आम की उम्मीद पालते हैं, जो उनके अपने ही कपड़े फाड़ने का काम करते हैं। याद रखा जाना चाहिए कि देश में जनता केवल मतदान तक जनार्दन होती है। इसके बाद ख़ुद को जनता का उपासक बताने वाले आराध्य बनते देरी नहीं लगाते। बेहतर होगा यदि दो महीने के देवता बन कर झूठा अहम पालने वाले आम जन अपने वहम को दूर कर उस सच को समझें, जो चुनाव के बाद पांच साल तक बेताल बन कर उनके कमज़ोर कंधों पर सवारी करता है। सियासी दावों के जंतर-मंतर और वादों की भूल-भुलैया में भटकने से बचने के बारे में अब विवेकपूर्वक सोचने का वक़्त आ चुका है। राहत देने वाले अलावों के नाम पर आहत करने वाले छलावों से भरपूर आज़ादी के 75 सालों का मूल्यांकन अब सियासी जमातों के गिरते हुए मूल्यों के आधार पर करने का समय आ चुका है।
राष्ट्रीय स्तर के किसी एक चेहरे के बलबूते राज्य की नैया का खिवैया चुनना इस बार भी घाटे का सौदा होगा। यह सच कम से कम भविष्य की दशा व दिशा तय करने वाले चुनावी साल में तो स्वीकारा ही जाना चाहिए। सत्ता की नीयत को अपनी नियति मान कर भोगते रहने की मंशा हो तो बात अलग है। याद रहे कि 2023 चेहरे नहीं चाल व चरित्र की बारीक़ी से परख का साल है। सत्ता-समर के फाइनल में आपकी पूछ-परख व अहमियत बनी रहे, इसके लिए अब आम मतदाताओं को अपने तेवर का अंदाज़ा कराना ही होगा। इनमेंअग्रणी भूमिका बदहाल भविष्य की कगार पर खड़े राज्य कर्मचारियों को निभानी होगी। सभी कर्मचारी संगठनों को अमन की आड़ में दमन का रामगढ़ बन चुके सूबे में ज़ंजीरों से बंधे ठाकुर की जगह गब्बर बनना होगा। जो हाथों में मताधिकार की तलवार उठा कर ललकार भरे लहजे में यह नया और मिला-जुला डायलॉग बोलने का दम दिखा सके कि-
“दस जनों का परिवार और पेंशन बस दो हज़ार! बहोत नाइंसाफ़ी है ये। वही पुरानी पेंशन हमें दे दे ठाकुर!!”