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5 Nov 2023 · 3 min read

■ सरोकार-

#सरोकार-
■ अंधियारे में बांटें थोड़ा उजियारा।।
【प्रणय प्रभात】
आज की बात मैं अपने प्यारे दोस्तों के साथ करना चाहता हूँ। वो भी विशेष अनुरोध के रूप में प्रसंगवश। सनातन संस्कृति का सबसे बड़ा महापर्व दीपावली सन्निकट है। ध न-तेरस से भाई-दूज तक लगातार उल्लास देने वाले महापर्व की प्रतीक्षा आप को, हम को, सब को है। इन सब में वो भी हैं, जिनका जीवन अंधेरों के बीच उजाले की एक किरण चाहता है। आज की बात सरोकारों के साथ उन्हीं वंचितों के संदर्भ में है। जो आपकी मानवीय चेतना व संवेदनाओं को सादर समर्पित है।
बात की शुरुआत अपने मनोभावों का प्रतिनिधित्व मरने वाली चार पंक्तियों के माध्यम से करता हूं, जो मेरी अपनी हैं और अधिकारों से पूर्व कर्तव्यों की पैरोकारी करती हैं। कुछ इस तरह-
“किसी को नर्म लहजे में, किसी को सख्त होकर के।
अगर ना प्यार से समझे तो खुल कर डांटना होगा।।
बहुत अधिकार हैं अपने मगर कर्तव्य कहता है।
अंधेरा छांटना है तो उजाला बांटना होगा।।”
मंतव्य स्पष्ट है, जिसका वास्ता हमारे सार्वजनिक सरोकारों से है। शाश्वत मान्यताओं के मुताबिक़ दीपावली का अर्थ अपना घर जगमगा लेना ही नहीं, औरों के चेहरों पर हंसी-खुशी की चमक लाना भी है। वो एक मुस्कान उपजाना भी, जो भारी-भरकम अट्टहासों व ठहाकों के नीचे दबी कसमसा रही है। एक अदद मुस्कान उन वंचितों के लिए जो आंखों में अंधेरा समेटे दीवाली को देख भर पाते हैं। ख़ास कर उन परिवारों के ।।मासूम बच्चों के लिए जिन्हें ईश्वर ने औरों पर आश्रित माता-पिता के घर पैदा किया है।
कुछ वर्ष पूर्व मेरी और मेरे एक4 मित्र की बिटिया ने अपनी अन्य सहेलियों व सहपाठियों के साथ मिल कर एक सराहनीय पहल की थी। जो एक दशक तक जारी रही। बालिकाओं और बालकों ने अपनी वर्ष भर की बचत से ऐसे बच्चों के चेहरों पर कम से कम एक दिन के लिए मुस्कान लाने का संकल्प लिया, जो साकार हो कर परम संतोष व आनंद का कारण बना। इस अभिनव पहल के तहत लगभग डेढ़ दर्जन बच्चों का यह समूह आयोजन को और सार्थक तथा विस्तृत बनाने के लिए जनसहयोग का आकांक्षी रहा। जो नेक मंशा के कारण मिला भी। जो भी इस पुनीत अभियान में अपनी भागीदारी स्वैच्छा से निभाने आगे आए, उन्हें प्रणाम निवेदित करना चाहता हूँ। चाहत यह है कि इस तरह की पहल विविध स्तरों पर एक बार फिर हो। वो भी कुछ इस तरह, कि एक परंपरा बन जाए। हमेशा हमेशा के लिए।
ख्वाहिश है कि 5 दिनी उल्लास के इस महापर्व पर ग़रीब परिवारों के अधिक से अधिक बच्चों को मिठाई, कपड़ो, दीयों और मोमबत्तियों सहित लक्ष्मी पूजन की सामग्री व रोशनी बिखेरने वाली सुरक्षित आतिशबाज़ी के पैकेट वितरित किए जाऐं। कस्बों और शहर की उन दूरस्थ बस्तियों तक, जहां उमंग को पंख देने वाली हवा का टोटा है। आप सबका आह्वान है कि बाल, किशोर व नौजवान पीढ़ी को इस संकल्प के लिए प्रेरित व प्रोत्साहित करें। संभव हो तो अपना अंशदान भी दें। काले पक्ष में उजाले के प्रतीक इस तरह के हर अभियान को अपना सम्बल और सहयोग अवश्य प्रदान करें। ताकि एक दिन का उजाला अंधेरी बस्तियों तक पहुंचे और महापर्व को सार्थकता प्रदान करे।
अपने इस समयोचित आग्रह को विराम अपनी इन चार पंक्तियों के साथ देना चाहता हूँ, जो शायद इस महापर्व का संदेश भी हैं-
“तिमिर-तिमिर बस उच्चारें ये ठीक नहीं।
हम अंधियारों को धिक्कारें यह ठीक नहीं।।
ठीक यही इक दीप जलाएं द्वारे पर।
उजियारे को विजय मिले अंधियारे पर।।”
खुशी की रोशनी बांटने वाले चंद दीप। सिर्फ़ अपनी दहलीज़ पर ही नहीं, उन द्वारों पर भी जो अंधकार की जद में हैं। आज़ादी के कथित अमृतकाल में भी। अहर्निश अभावों के विषपान के लिए विवश।।
■प्रणय प्रभात■
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)

#आत्मकथ्य-
सामान्यतः मैं कोई भी अनुरोध तब तक नहीं करता, जब तक ख़ुद उस पर अमल नहीं कर लेता।

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