■ समयोचित विचार बिंदु…
■ सनातन सच बस यह ही है
★ तर्क-वितर्क के लिए न समय है और ना ही सामर्थ्य
★ जो माने उसका भला, जो न माने उसका भी भला
【प्रणय प्रभात】
कथित और विवादित वर्ण व्यवस्था न शाश्वत है और ना ही सनातन। यह केवल कर्म-केंद्रित थी, है और रहेगी। गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने भी स्पष्ट किया है-
” करम प्रधान विश्व करि राखा।
जो जस करहि सो तस फल चाखा।।”
प्रमाणों से धर्मग्रंथ भरे पड़े हैं। आप केवल भक्तमाल के भक्तों के बारे में जान लें। सारी शंकाओं का निवारण हो जाएगा। बशर्ते आपकी खोपड़ी पर राजनैतिक पूर्वाग्रह या किसी विशेष विचारधारा की टोपी न हो।
मन्तव्य के समर्थन में उदाहरण है आद्य-महाग्रंथ श्री रामायण जी के प्रणेता भगवान श्री बाल्मीकि और आसुरी शक्ति के प्रतीक लंकाधिपति दशानन का।
संत प्रवर कबीर और भक्त-शिरोमणि रैदास की सुकीर्ति से आज कौन अनभिज्ञ है। रहा प्रश्न क्षुद्र-स्वार्थवश विवाद खड़ा करने का, तो यह काम कोई भी कुतर्की आराम से कर सकता है। “अधम” और “ताड़ना” जैसे शब्द को अर्थ व संदर्भ समझे बिना अनुचित विवाद पैदा करने वाले पहले तो हिंदी व उसकी सहयोगी भाषाओं की समृद्ध शब्द-संपदा से परिचित हों। पर्यायवाची, समानार्थी व अनेकार्थी शब्दों का अध्ययन करें तो शायद शब्दों को जातिवादी रंगत देने जैसी मानसिकता से मुक्त हों।
निरर्थक विवाद खड़ा करने वालों को ज्ञात होना चाहिए कि महाकवि तुलसीदास जी ने “श्री रामचरित मानस” की रचना “दास्य-भाव” के चरम पर पहुंचने के बाद की है। भक्तराज केवट, गुहराज निषाद, भक्तिमती माता शबरी जैसे बड़भागी पात्रों को अमर बनाने वाले गोस्वामी जी ने अपनी कृतियों में स्वयं को एक नहीं अनेक बार “अधम” की संज्ञा दी है। जिसका सीधा-सरल आशय “तुच्छ” या “अकिंचन” से है। इसी प्रकार से “५₹ताड़ना” शब्द को प्रताड़ना या उत्पीड़न से जोड़ने वालों को समझ मे आना चाहिए कि इस शब्द का एक अर्थ “परखना” भी होता है। अब मंशा केवल विवाद और कुतर्क की हो तो आप जानें, आपका काम जाने।
मैं बाल्यकाल से प्रभु श्रीराम का अनन्य उपासक रहा हूँ और आज तक भी श्री रामचरित मानस का विद्यार्थी हूँ। मैं वैयक्तिक रूप से सार्वजनिक जीवन मे पग-पग पर उन तमाम शिक्षाओं को साबित करता आया हूँ, जो “मानस जी” से मिली है। मुझे तो आज तक नहीं लगा कि किसी से उसकी जाति के आधार पर घृणा की जानी चाहिए।मेरे धार्मिक व पारिवारिक संस्कारों ने मुझे हमेशा से सिखाया है कि-
“जात-पात पूछे नहीं कोई।
हरि को भजे सो हरि को होई।।”
सगुण उपासक होने के बाद भी पाखण्ड विरोधी ज्ञानमार्गी संत कबीर दास जी का जीवन व सोच पर प्रभाव रहा है। इसलिए मानता आया हूँ कि-
“जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तरवारि का पड़ी रहन दो म्यान।।”
उद्देश्य सुनामी फ़साद मोर टाइप के किसी सियासी सिरफिरे की टिप्पणी से व्यग्र या विचलित होकर बहस को जन्म देना या उसका हिस्सा बनना नहीं। इसके लिए मेरे पास ना समय है और ना ही सामर्थ्य। पीड़ा बस इस बात को लेकर है कि बिना अध्ययन, चिंतन, मनन समाज मे संशय फैलाने वाले उस दिव्य ग्रंथ को लेकर भ्रम पैदा कर रहे हैं, जिसकी एक-एक पंक्ति कई-कई शंकाओं का समाधान करती आई है। तभी कहा भी गया कि-
“रामकथा सुंदर करतारी।
संशय विहग उड़ावन हारी।।”
मेरा लेखकीय प्रयास केवल एक साधारण रामभक्त व मानसपाठी के रूप में एक सनातन व शाश्वत सत्य का पक्ष रखने भर का है। इसके लिए मुझे किसी की अनुमति की आवश्यकता नहीं। सहमति-असहमति आपका अपना विशेष अधिकार है। जो समझना चाहे, वो समझे। समझ कर भी न समझना चाहे तो न समझे। जैसी जिसकी सोच। मैं तो बस इतनी सी कामना व प्रार्थना करना चाहता हूँ कि पतित-पावन प्रभु श्रीराम उन सब को सम्मति प्रदान करें, जो बिना पढ़े, बिना विचारे अपना अजीर्ण वमन के रूप में उगल रहे हैं और करोड़ों आस्थावानों की आस्था की छाती पर पद-प्रहार जैसा जघन्य अपराध कर रहे हैं।
【प्रणय प्रभात】