■ पैनी नज़र, तीखे सवाल
#पोस्टमार्टम
■ सुनियोजित सा षड्यंत्र है आरबीआई का दावा।
◆ सत्ता से प्रेरित बेतुका बयान
◆ मसला ओल्ड पेंशन स्कीम का
◆ अकारण नहीं मंशा पर सवाल
【प्रणय प्रभात】
रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया (आरबीआई) को अनायास एक महाज्ञान हो गया है। उसने पुरानी पेंशन योजना बहाल करने वाले राज्यों को आगाह कराने में पल भर की देरी नहीं लगाई है। आरबीआई ने पुरानी पेंशन को राजकोषीय भार बताया है। जो न केवल एक शर्मनाक वक्तव्य है, बल्कि एक सुनियोजित षड्यंत्र है। जिससे सरकार के संकेत की गंध साफ़-साफ़ महसूस की जा सकती है। स्पष्ट प्रतीत होता है कि शब्द सरकार के हैं, जो आरबीआई के मुंह से निकले हैं। बहुत हद तक संभव है कि निकले न हों बल्कि निकलवाए गए हों। वो भी तब जबकि देश के नौ में से तीन राज्यों के लिए चुनावी कार्यक्रम निर्धारित हो गया है। मौक़ा देख कर चौका जड़ने की कोशिश ऐसे समय में की गई है जब छह अन्य राज्यों में चुनावी सरगर्मी शुरू हो चुकी है। मंशा केवल अन्य दलों पर पुरानी पेंशन की घोषणा न करने को लेकर दवाब बनाने का है। ताकि इस बहाने सत्तारूढ़ भाजपा “ओल्ड पेंशन” की “अटल टेंशन” से उबर सके। उस टेंशन से जिसने हिमाचल प्रदेश में रिवाज़ बदलने के उसके सपने को चकनाचूर कर दिया।
केंद्र सहित भाजपा शासित राज्य सरकारें राज्य कर्मचारियों के भविष्य को लेकर कतई गंभीर नहीं। उन्हें यह भी मंज़ूर नहीं कि दूसरे दल इसे सत्ता के सेमी-फाइनल का मुद्दा बनाएं। अपने आने वाले कल की दयनीयता को लेकर चिंतित राज्य कर्मचारियों को भाजपा छेड़ना नहीं चाहती। हिमाचल में इस मुद्दे की कामयाबी विपक्ष को समझ आ चुकी है। ऐसे में एक चारा शायद यही था कि इस असंवेदनशील व बेशर्म बयान को आरबीआई के माध्यम से प्रसारित कराया जाए। ताकि भाजपा और केंद्र की एक न सुनने पर अडिग अन्य दलों को पांव पीछे खींचने के लिए बिना मुंह हिलाए मजबूर किया जा सके।
मंशा छोटे राज्यों से अधिक बड़े राज्यों में एक बड़े मुद्दे को खड़ा न रहने देने की है। जिनमें 023 के लिहाज से मध्यप्रदेश सबसे ऊपर है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारें हैं और कांग्रेस कर्मचारी हित मे इसे एक मुद्दा बनाने से परहेज़ करने के मूड में नहीं। लाखों कर्मचारियों और उनके परिजनों में इस मुद्दे को लेकर बनी नाराज़गी का मतलब भाजपा के अलावा सबको पता है। यह और बात है कि भाजपा 2018 के नतीजों को भूल कर अपनी मस्ती में डूबी हुई है। जो इस अहम मुद्दे को मुद्दा मानने तक को राज़ी नहीं। ऐसे में यदि कल को भाजपा राजस्थान और छत्तीसगढ़ कांग्रेस से छीनने में सफल हो जाती है तो बहुत हद तक संभव है कि दोनों राज्यों के कर्मचारियों से भी पेंशन का हक़ छीन लिया जाए। जिसकी भूमिका रिजर्व बैंक का यह वक्तव्य बन ही जाएगा।
“ओल्ड पेंशन” को लेकर टेंशन जताने वाले भारतीय रिजर्व बैंक की मंशा पर संदेह अकारण नहीं। इस बयान के पीछे एक सुनियोजित रणनीति ख़ुद आरबीआई के आकस्मिक महाज्ञान से उजागर हो रही है। ध्यान देने वाली बात यह है रिजर्व बैंक ने यह ज्ञान सरकारों को अनुत्पादक कार्यक्रमों के उन अंबारों के सम्बंध में कभी नहीं दिया, जो देश की छाती पर बोझ बने हुए हैं। रिजर्व बैंक ने यह चिंता उन योजनाओं को लेकर भी कभी नहीं जताई, जिन्होंने देश भर में “रेवड़ी कल्चर” और “मुफ़्तख़ोरी” को बढ़ावा दिया। रिजर्व बैंक तब भी मुंह मे दही जमाए बैठा रहा, जब सरकारी सौगात के नाम पर “ख़ैरात की खिचड़ी” बांटने की होड़ एक अंधी दौड़ की तरह देश की राजधानी से शुरू हुई। रिजर्व बैंक को राजकोष की चिंता तब क्यों नहीं हुई, जब केंद्र से लेकर राज्य सरकारों तक में विज्ञापनों के नाम पर अरबों को आग लगाने का खेल शुरू हुआ? रिजर्व बैंक ने चलती सरकारों को धराशायी कर “उप चुनावों” के नाम पर थोपे जाने वाले अनचाहे आर्थिक भार पर भी कभी टसुए नहीं बहाए। राजकोष के असंतुलन की चिंता आरबीआई को दिनों-दिन बढ़ते “व्हीआईपी कल्चर” के परिप्रेक्ष्य में भी शायद ही कभी हुई हो। बारह महीने, चौबीसों घण्टे चुनावी मोड के नाम पर जलसे-जुलूस भी कभी आरबीआई की आंखों की किरकिरी नहीं बने। आम आदमी को जायज़ ऋण देने जूतियां घिसवा देने वाले देश की बैंकों को उल्टे उस्तरे से मूंड कर चंपत हो जाने वालों की करतूत से रिजर्व बैंक के पेट में कभी मरोड़ नहीं उठी। चंद लोगों की सुरक्षा के नाम पर राजकोष की बड़ी मद का ज़ाया होना कभी रिजर्ब बैंक को झकझोरने वाला साबित नहीं हुआ। “लोकतंत्र के गांव” में “सफ़ेद हाथी” सिद्ध होते कथित संवैधानिक पदों पर विराजमान माननीयों की सेवा और प्रोटोकॉल के नाम पर करोड़ों की बर्बादी पर रिजर्व बैंक के फूटे मुंह से कभी आवाज़ नहीं निकली। थोथी वाह-वाही और सियासी लोकप्रियता के चक्कर मे कर-दाताओं को घनचक्कर बनाकर निरर्थक काम करने की लत पर भी रिजर्व बैंक ने कभी सवाल खड़ा नहीं किया। सियासत की महाभारत में हर एक अनीति पर “भीष्म” की तरह मौन रिजर्व बैंक का “ओल्ड पेंशन” के मुद्दे पर अकस्मात “ज्ञान दास” बन जाना किसी के गले कैसे उतरे? यह शायद रिजर्व बैंक ही समझा सकता है कि उसने बिना अजीर्ण वमन किया तो आख़िर क्यों और किसके इशारे पर?
रिजर्व बैंक को यदि राजकोष की इतनी ही चिंता है तो उसे सबसे पहले मौद्रिक-नीति के पन्नों को तेज़ी से चाटने वाली दीमकों पर स्वप्रेरित संज्ञान लेना चाहिए। साहस संजो कर बोलना चाहिए कि एक बार चुनाव जीतने वालों को शपथ के साथ दिए जाने वाले बड़े-बड़े अधिकार व लाभ राजकोष पर भार हैं। उसे चाहिए कि वो केंद्र सरकार को बड़े और समर्थ नौकरशाहों सहित सभी माननीयों की पेंशन रद्द करने की सलाह देकर देखे। सलाह उन पेंशनर्स की पेंशन ख़त्म करने की भी देनी चाहिए, जिसका आकार मौजूदा वेतन-भत्तों से ज़्यादा है। उसे पता तो चले कि “अलाव की आंच” हथेली कैसे जलाती है। बिना मांगे सलाह देकर सरकार के प्रति वफ़ादारी साबित करने के चक्कर में चर्चा का विषय बने रिजर्व बैंक को “पुरानी पेंशन” के मामले में अपनी नीयत का आंकलन आज नहीं तो कल ज़रूर करना पड़ेगा। बशर्ते बेतुका बयान देने वाले के पास आत्मा और संवेदना नाम की चीज़ हो।
जहां तक केंद्र सहित भाजपा शासित राज्यों की सरकारों का सवाल है, उन्हें इस साल “ओल्ड पेंशन” की बहाली का निर्णय बिना किसी शर्त लेना ही होगा। ख़ुद को लाखों कर्मचारियों, उनके परिजनों व आश्रितों का भाग्य-विधाता समझने वालों का छल आने वाले कल में चल नहीं पाएगा। सरकारों को स्वीकारना होगा कि पेंशन सेवा में उम्र खपा देने वाले कर्णचरियों पर उपकार नहीं उनका न्यायोचित अधिकार है। जिसका अधिग्रहण उसे अब किसी सूरत में बर्दाश्त नहीं होगा। सत्ता के समर में ख़ुद को अपराजेय समझने वालों को आम कर्मचारियों की भावनाओं व जायज़ मांग को सम्मान देना होगा। मदांध सियासी सूरमाओं को “पुरानी पेंशन” के संदर्भ में हिमाचल प्रदेश के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री सुखविंदर “सुक्खू” के उस वक्तव्य से भी थोड़ी-बहुत सीख लेनी होगी, जो राज्य कर्मचारियों का मान और मर्तबा बढाने वाले ही नहीं बल्कि मानवीय सम्वेदना की उत्कृष्टता को रेखांकित करने वाले हैं। साथ ही आरबीआई की उस सोच व कोशिश को आईना दिखाने वाले भी, जो सत्ता से प्रेरित व प्रभावित दिखाई दे रही है।
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श्योपुर (मध्यप्रदेश)