■ नज़्म (ख़ुदा करता कि तुमको)
■ दिल की नज्म : दिमाग़ के नाम
【प्रणय प्रभात】
★ जिसे तुम इश्क़ समझे हो छलावा बस छलावा है,
जिसे चाहत समझते हो, दिखावा ही दिखावा है।
तुम्हारा इश्क़ सहरा में, महज कोरा भुलावा है,
तुम्हारा इश्क़ क्या, झूठे कसीदों के अलावा है?
तुम्हें तो इश्क़ की भाषा, बिना बोले समझनी थी,
तुम्हें तो इश्क़ की क़ीमत, बिना तोले समझनी थी।
तुम्हें तो इश्क़ की गठरी, बिना खोले समझनी थी,
तुम्हें तो इश्क़ की ताक़त, बिना डोले समझनी थी।
लगा मुझको कि तुम ख़ुद इश्क़ के जज़्बात समझोगे,
मैं लब खोलूं ना खोलूं, फिर भी मेरी बात समझोगे।
कहोगे दिन को दिन तो रात को बस रात समझोगे,
भले मुश्किल हो दूरी, बीच के हालात समझोगे।
मगर ये क्या उलझकर रह गए तुम एक महफ़िल में,
तुम्हें बहती लहर भाई, रही निस्बत न साहिल में।
तुम्हें तो फ़र्क़ तक करना न आया हक़ में बातिल में,
न जाने प्यार की परिभाषा गढ़ ली कौन सी दिल में?
ख़ुदा करता कि तुमको, इश्क़ का मानी समझ आता।।
★ मगर तुम थे कि तुमको, इश्क़ जिस्मों में नज़र आया,
मगर तुम थे कि तुमको, सच तिलिस्मों में नज़र आया।
मगर तुम थे कि तुमको, इश्क़ रस्मों में नज़र आया,
मगर तुम थे कि तुमको, इश्क़ किस्मों में नजर आया।
पढ़ा होता अगरचे फ़लसफ़ा, तुमने मुहब्बत का,
तो रूसवा इस तरह करते नहीं तुम नाम उल्फ़त का।
तुम्हें महसूस होता, इश्क़ ही रस्ता है राहत का,
तुम्हें ख़ुद ही समझ आता कि क्या है मोल चाहत का।
मुसीबत ये रही बस, इश्क़ तुमने उम्र में परखा,
मुसीबत ये रही बस, इश्क़ तुमने ज़ात में निरखा।
मुसीबत ये रही बस, इश्क़ को औक़ात में बांटा,
मुसीबत ये रही बस, इश्क़ सूरत-शक़्ल में छांटा।
ख़ुदा करता कि तुमको, इश्क़ का मानी समझ आता।।
★ समन्दर आसमां छूने की ख़ातिर, क्यों उछलता है?
या वो बच्चा कोई, जो चांद पाने को मचलता है।
वो क्या जो रेल की दो पटरियों के बीच चलता है?
नहीं है इश्क़ क्या वो जो कि दो आंखों में पलता है?
यक़ीनन इश्क़ वो जिसमें नहीं पाना है, खोना है,
यक़ीनन इश्क़ वो जिसमें, फ़क़त रोना ही रोना है।
यक़ीनन इश्क़ वो रिश्ता, जो नातों से सलोना है।
यक़ीनन इश्क़ वो, जिसमें कभी ना जीत होना है।
ख़ुदा करता कि तुमको, इश्क़ का मानी समझ आता।।
■ प्रणय प्रभात ■
श्योपुर (मध्यप्रदेश)