■ नई परिभाषा / “लोकतंत्र”
■ प्रयोग-धर्म.. .!
★ पढ़ना ही नहीं, गढ़ना भी
【प्रणय प्रभात】
मैं परिभाषाएं पढ़ता ही नहीं, गढ़ता भी हूँ साहब! जब भी कुछ सूझ जाए तब। जिस पर भी मन चाहे। इस तरह से सृजन में प्रयोग धर्म (नवाचार) का पालन भी हो जाता है और एक नया अभिमत भी अस्तित्व पा जाता है। कुल मिला कर सोचते रहना है कुछ न कुछ। ताकि लिखा जाए कुछ नया आपके लिए। इसके सिवाय मेरे पास कुछ है भी नहीं, किसी को देने के लिए। फ़िलहाल इस परिव्हाश को सामयिक संदर्भों में पढ़ें और बताएं कि मैंने ग़लत कहा या सही??