■ एक और नया प्रयोग
#साहित्यिक_पोस्टमार्टम…..
■ पहली बार एक “समीक्षा” की समीक्षा
◆ साहित्य में एक नई विधा का जन्म
【प्रणय प्रभात】
हमारे शहर में असगर अली दाउदी नामक एक चर्चित हास्य-व्यंग्य कवि हुआ करते थे। उनकी दो पंक्तियाँ लगभग हर मंच से गूंजती थीं। जो इस प्रकार हैं-
“गधे को सजा दो किताबों से लेकिन,
गधा तो गधा है, गधा ही रहेगा।।”
आज तक़रीबन 30 साल बाद यह पंक्तियां मुझे एक बार फिर प्रासंगिक सी प्रतीत हुईं। साथ ही ताज़ा हो उठा बाल्यकाल में पढ़ा बाबा सूरदास जी का एक पद-
“खर कौ कहा अरगजा-लेपन, मरकट भूषण अंग।
गज कौं कहा सरित अन्हवाए, बहुरि धरै वह ढंग।
पाहन पतित बान नहिं बेधत, रीतौ करत निषंग।
सूरदास कारी कमरि पै, चढत न दूजौ रंग।।”
पुरातन पंक्तियों के अनायास नूतन होने की वजह बनी एक अहिंदी-भाषी क्षेत्र के हिंदी समाचार-पत्र में छपी एक कृति की समीक्षा। समीक्षक थे कोई प्राध्यापक महोदय, जो शिक्षा की दयनीय दशा को स्वप्रमाणित कर रहे थे। नाम के साथ जुड़ा डॉक्टरेट का प्रतीक शोध-प्रबंधन से उपाधि-अर्जन तक की कलई ख़ुद खोले दे रहा था। नित्य-लेखन को विषय की तलाश थी, जो सहज ही पूरी हो गई। रचनात्मक प्रयोगधर्म सतत जागृत रहता ही है। उसी ने संकेत दिया कि आज एक समीक्षा समीक्षक व उसकी समीक्षा की हो जाए। संभवतः आज से पहले आपने किसी समीक्षा की समीक्षा नहीं पढ़ी होगी। पढ़ी हो तो स्मरण करा कर मुझ अधम-अकिंचन के अल्पज्ञान पर पूर्ण-विराम लगाएं। यदि नहीं पढ़ी हो तो मुझ धृष्ट को साहित्य की इस नई विधा का जनक मान कर स्मृति में सुरक्षित कर लें।
प्रकाशित समीक्षा को आद्योपांत देखने में महज पांच मिनट लगे। जिसकी समीक्षा में दस गुना समय खर्च करना घाटे का सौदा नहीं लगा। समीक्षा के लिए “देखने” जैसे शब्द का उपयोग जान-बूझकर करना पड़ रहा है। समीक्षा में “पढ़ने” जैसा कुछ होता तो उसे देखना क्यों पड़ता? रुचि व मनोयोग से पढ़ने की जगह सरसरी नज़र से देखने का कारण समीक्षा की शुरुआत बनी। जो न तो रोचक थी और न ही प्रभावी। रही-सही कसर शाब्दिक त्रुटियों ने पूरी कर दी। लगा कि समीक्षा के नाम पर बिना प्रस्तावना का ललित-निबंध मात्र लिखने भर के लिए लिखा गया है। स्वनामधन्य समीक्षक को शायद समीक्षा के प्रकाशन का तो पता था, किंतु इस बात का ज्ञान नहीं था कि समीक्षा छपने के बाद कृति से अधिक सुर्खी उनका अल्पज्ञान बटोरेगा। आभास होता तो महाशय उस प्रणाली का उपयोग करते, जो बीते दो-तीन दशक से प्रचलन में है। मतलब समीक्षा किसी जानकार से लिखवाते और अपने नाम से छपवा लेते। रचनाकार एक विद्वतापूर्ण समीक्षा से कृतार्थ हो जाता और समीक्षक ऐसी समीक्षा के लपेटे में आने से बच जाता।
भूमिका से पटाक्षेप तक व्याकरणीय व लेखकीय त्रुटियों से परिपूर्ण समीक्षा ने बिना पूछे बताया कि अब शब्द-शक्ति, वाक्य-संयोजन, भाषा-शैली, भाव-प्रवणता, वर्तनी और विन्यास की कोई आवश्यकता नहीं। बशर्ते समीक्षक के पास येन-केन-प्रकारेण जुगाड़ी गई एक अदद प्रतिष्ठापूर्ण उपाधि हो। भले ही वो उसका बेड़ा ग़र्क़ करने वाली साबित हो। ज्ञान यह भी प्राप्त हुआ कि समीक्षा लिखने के लिए कृति को पढ़ना भी आवश्यक नहीं। आदिकाल से प्रचलित “प्रशंसात्मक” वाक्यों का प्रयोग करने मात्र से भी समीक्षा विस्तार पा सकती है। “चाटुकारिता” जैसे शब्द का उपयोग करने की मंशा होती तो “प्रशंसात्मक” शव्द का प्रयोग न करता। जो चाहे-अनचाहे ऊपर करना पड़ा है। यह जानते हुए भी, कि दोनों शब्द एक दूसरे के पूरक या पर्याय न होकर परस्पर धुर-विरोधी हैं।
बिम्ब-प्रतिबिंब, उपमान-प्रतिमान या शब्द-शिल्प के शिष्ट-विशिष्ट नवाचार से कोसों दूर कथित समीक्षा सामयिकता के राजमार्ग के बजाय आदिम-युगीन पगडंडी पर रेंगती हुई सी जान पड़ी। वो भी लड़खड़ाती हुई सी। ऐसा लगा मानो क़दमों में जान नाम की कोई चीज़ ही न हो। शीर्षक बनने का माद्दा रखने वाले एक प्रेरक संदेश या बोध-वाक्य तक से रहित समीक्षा में ऐसा कुछ नहीं था, जिसकी समीक्षा की जा सके। यह और बात है कि स्वाध्याय के साथ अन्वेषण, विश्लेषण की सनक ने दो कौड़ी के विषय पर चार कौड़ी की ऊर्जा नष्ट करा डाली। वो भी सुबह-सवेरे, खाली-पीली में। सकारात्मक सी बात केवल यह मानी जा सकती है कि आत्म-मुग्धता की मृग-मरीचिका में विचरते एक रचनाकार को एक स्वयम्भू मूर्धन्य मनीषी की “सम्मति” मिल गई और साहित्यकार बन पाने में नाकाम समीक्षक की छपास-क्षुधा को तृप्ति का आभास हो गया। लगे हाथ मुझ जैसी सतत सृजन व नवाचार की भुक्कड़ आत्मा को भी बैठे-ठाले ख़ुराक़ मिल गई। वो भी पोलियो-ड्रॉप्स की तरह मुफ़्त में घर बैठे। परमपिता इस तरह के “आंख के अंधे, गांठ के पूरे” रचनाकारों, “अधजल गगरी, छलकत जाए” को चरितार्थ करते समीक्षकों, “ऊंची दुकान, फ़ीके पकवान” की श्रेणी के व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं के मालिकों व “काला अक्षर, भैंस बराबर” वाली कहावत के प्रतीक संपादकों को लंबी उम्र प्रदान करे। ताकि हम जैसे अन्यान्य भी “बिल्ली के भाग से छींका टूटा” की तर्ज पर टूटा-फूटा लिखने के लिए विषय पा कर धन्य होते रहें। उम्र “हमारी भी जय-जय, तुम्हारी भी जय-जय” टाइप आप जैसे रसिक पाठकों की भी लंबी हो। जो इस बात के साक्षी बने रहें कि किसी समीक्षा की समीक्षा का जन्मदाता कौन था? हो सकता है कभी दस-बीस हज़ार रुपए के लिए यह सवाल “केबीसी” में भी पूछ लिया जाए कि “साहित्य जगत में किसी समीक्षा की पहली समीक्षा किस बन्दे ने की थी?” यक़ीन मानिएगा, जवाब देने के लिए मिलने वाले चार विकल्पों में एक नाम इस नाचीज़ का भी होगा।जो ”हॉट-सींटी” पर विराजमान प्रतिभागी को बिना किसी “लाइफ़-लाइन” के जिताने में मददगार बनेगा। बस नाम याद रह जाए तो। वैसे भी देश भुलक्कड़ों का है और इसके अपवाद आप भी नहीं। हा…हा…हा… हा।
आज के आनंद की जय।।