■ आज की प्रेरणा
👉 जीवन का आधार है संघर्ष
◆ प्रतिकूलताएं बनाती हैं अनुकूल
【प्रणय प्रभात】
जो कुछ अच्छा होता है, वो हम करते हैं। जो कुछ बुरा होता है, वो ईश्वर करता है। यह मूर्खतापूर्ण सोच अधिकांश लोगों की सोच पर हावी रहती है। जीवन मे ज़रा सा कष्ट आते ही हम सुख में बिताए पलों को भूल जाते हैं। मामूली से संघर्ष में किस्मत के नाम पर ऊपर वाले को कोसना या उलाहना देना शुरू कर देते हैं। यह जाने और माने बिना कि संघर्ष ही जीवन का मूल आधार है। जिसके बिना परिष्कृत और परिमार्जित जीवन की कल्पना तक बेमानी है। संघर्ष जीवन के लिए शोषक नहीं पोषक है। संघर्ष ही स्वर्ण समान जीवन को कुंदन बनाता है। मान कर चलना चाहिए कि ईश्वर हमारे लिए वो करता है, जो हमारे लिए अच्छा होता है। उसका अच्छा-बुरा लगना हमारी अपनी सोच पर निर्भर करता है। कैसे, यह सवाल दिमाग़ में उपजे तो उसका जवाब इस एक प्रसंग से पाइए। जो आपको सच से अवगत कराएगा।
एक बार एक किसान भगवान की प्रार्थना करते-करते सफल हो गया और भगवान को उसके सामने प्रकट होना पड़ा।
भगवान ने कहा कि वो उसकी प्रार्थना से प्रसन्न हैं और उसे एक वरदान देना चाहते हैं। पीड़ित किसान ने कहा कि- “प्रभु! मुझे ऐसा लगता है कि आपको खेती-बाड़ी बिल्कुल नहीं आती। भले ही ये सारी दुनिया आपने बनाई है, किंतु खेती-किसानी का आपको किसी तरह का कोई अनुभव नहीं है।”
भगवान उसकी बात से अचरज में आ गए। उनके पूछने पर किसान ने अपनी बात स्पष्ट करते हुए कहा कि-
“फसल को जब पानी की ज़रूरत होती है, तब आप धूप निकाल देते हैं। जब धूप की ज़रूरत होती है, तब पानी बरसा देते हो। जब किसी तरह से फसल खड़े हो जाती है, तो अंधड़, ओले, तुषार आदि से मुसीबत पैदा कर देते हो। कभी सूखा तो कभी बाढ़। यह सब ठीक है क्या…?”
किसान ने उलाहना देते हुए कहा कि उन्हें इस मामले में कतई ज्ञान नहीं है। साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया कि उन्हें यही सब बताने के लिए ही वो इतने दिन से प्रार्थना कर रहा था। उसने यह तक भी कह डाला कि वो एक बार उसे मौका दें तो वो दिखला सकता है कि खेती-बाड़ी आख़िर की कैसे जाती है।
रुष्ट व असंतुष्ट किसान के तर्क और वचनों से चकित भगवान उसे मौका देने को राजी हो गए। इसके पीछे का मंतव्य किसान को सच से परिचित कराना था। उन्होंने किसान से कहा कि इस साल वो जो भी चाहेगा, वैसा ही होगा। किसान ख़ुशी-ख़ुशी अपने गांव लौट आया। खेती का मौसम आने के बाद किसान ने जो चाहा, वही होने लगा। उसने जब धूप मांगी, धूप आ गई। उसने जब पानी मांगा, पानी आ गया। किसान को अंधड़, ओले, तुषार आदि की न ज़रूरत थी, न उसने मांगे। नतीज़तन वो आए भी नहीं। सारे खेत समय के साथ लहलहाने लगे। फसल बड़ी होकर ऊंची उठने लगी। पौधे ऐसे उठे जैसे पहले कभी नहीं उठे थे। गदगद किसान ने सोचा कि अब दिखलाऊंगा भगवान को। उनसे कहूंगा कि देखो, कैसी शानदार फसल हो रही है इस बार।
आख़िरकार, फसल पकने का समय भी आ गया और फसल पक भी गई। किसान ने देखा कि दूर-दूर तक भरपूर बालियां दिखाई दे रही थीं, लेकिन उनमें गेहूं के दाने नहीं थे। जो थे वो ना तो सही आकार में थे, ना ही पके थे। सिर्फ ऊपरी खोल शानदार था, जबकि भीतर गेहूं का ठोस दाना था ही नहीं।
किसान बहुत हैरान हुआ। वह संकट में पड़ गया कि अब क्या करे? उसने फिर से प्रार्थना की और प्रकट हुए भगवान से जानना चाहा कि सब कुछ अच्छा करने के बाद भी उससे भूल कहां हो गई, जो यह नतीजा सामने आया? तब भगवान ने उसे बताया कि बिना मुसीबतो के रूपी सत्य कभी पैदा नहीं होता। पैदा होने के बाद उसे पलने-बढ़ने के लिए हर पग पर चुनौती की ज़रूरत होती है। भगवान ने किसान से कहा कि तुमने सब कुछ अच्छा-अच्छा मांग लिया। पूरी तरह अनुकूल मौसम भी मांग लिया। बस, उसने यही काम गलत किया, क्योंकि इसमें सम्पूर्णता नहीं थी। मीठे की अनुभूति के लिए कड़वे या खारे की अनुभूति पहले ज़रूरी होती है। भगवान ने किसान को बतलाया कि उसने सुख ही सुख मांग लिया, जबकि उसके आभास के लिए दु:ख की भी उतनी ही महत्ता है। दुःख-दर्द ही जीवन को निखारता है और सुख का मोल बढ़ाता है।
भगवान ने समझाया कि सब कुछ अनुकूल होना ही प्रतिकूल परिणाम की वजह बना। पौधों को पैदाइश के बाद भरपूर धूप और हवा मिली, जिससे उनकी संघर्ष की शक्ति का ह्रास हो गया। उन्हें विषम हालात से जूझने का मौका एक बार भी नहीं मिला। जीवन मे संघर्ष नहीं था, तो पौधों की जड़ें मज़बूत नहीं हो पाईं। जड़ व तनों का चुनौती-रहित अस्तित्व पूरी तरह से खोखला होता चला गया।
सबल नज़र आते पौधे ऊपर तो उठ गए, लेकिन नीचे दुर्बल ही रह गए। उन्होंने किसान से कहा कि वो ज़रा पौधों की जड़ें उखाड़ कर भी देखे। किसान ने ऐसा कर के देखा तो उसे पता चला कि ऊंचे-ऊंचे पौधों की जड़ें अत्यंत छोटी-छोटी थीं। लिहाजा वो ना तो भूमि से सत्व ले पाईं और ना ही धरती पर अपनी पकड़ बना पाईं।
सच से अवगत किसान को मानना पड़ा कि जब-जब पौधों को अंधड़ का वेग झेलना पड़ता है, तब उनकी जड़ें और गहरी हो जाती हैं। वो जान गया कि बात पौधों की हो या मनुष्य की, प्रतिकूलता और संघर्ष के बिना वजूद की दृढ़ता संभव ही नहीं है। उसे पता चल चुका था कि हवा का रुख हमेशा एक तरफ से नहीं होना चाहिए। हवा का बहाव पौधों और वृक्षों को झुकने और विपरीत बल लगाकर खड़े होने की शक्ति देता है। इसी से उसकी जड़ें हर तरफ विस्तारित और मज़बूत होती हैं। कुल मिला कर जड़ें जितना संघर्ष करेंगी उतनी ही गहरी और दृढ़ होंगी तथा धरती के अंदर तक समा पाएंगी। मानव जीवन भी इसी संघर्ष के बलबूते निखार पाता है। प्रसंग का सार यह है कि संकल्प पैदा नहीं हो पाया तो समर्पण भी कभी पैदा नहीं हो सकता। चुनौती से ही मानव के प्राण उज्ज्वल होते हैं और उनमें निखार आता है। अगर जीवन में कोई चुनौती नहीं होगी तो पुरुषार्थ की गुंजाइश भी शेष नहीं रहेगी। अभिप्राय यह है कि संघर्ष के बिना जीवन की न कोई सामर्थ्य है, न कोई महत्ता। इसलिए सभी को संघर्ष को वरदान मान कर सहज स्वीकार करना चाहिए। ताकि जीवन प्रेरक व सार्थक हो सके।
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