■ आज का दोहा…
■ बज़ट/2023
“बजा बज़ट का झुनझुना
उलझ गई है सोच।
साल चुनावी हर तरफ़ सिर्फ़ लोच ही लोच।।
■ बज़ट_2023/24
■ दावों के विरुद्ध, वादों से उलट…
देश का आम बज़ट विसंगति से अछूता नहीं है। प्रावधानों का समूचा ताना-बाना उलझा हुआ है। जो जनमानस की उलझन बढ़ाने वाला है। सरकार खुद अपने आपको चुनावी दवाब से सुलझा पाने में असमर्थ सी दिखाई दी है। एक तरफ 8 लाख तक सालाना आमदनी वालों को आर्थिक कमज़ोर मानना और दूसरी तरफ कर की सीमा 7 लाख तक रखना अपने आप मे विसंगति है। कराधान में नई-पुरानी योजना को लेकर अलग-अलग प्रस्ताव भी भ्रामक है। जो सरकार की मंशा को पारदर्शी नहीं रहने देते। एक तरफ सबके विकास की डुग्गी और दूसरी तरफ 80 करोड़ लोगों के लिए मुफ्त अनाज का प्रावधान ढोल की पोल खोलने वाला है। रोज़गार और उत्पादन की अनदेखी करते बज़ट में वाह-वाही दिलाने वाले अनुत्पादक कार्यक्रमों की बहुलता है। किसान, कर्मचारी और आम आदमी को मंदी व मंहगाई की मार की तुलना में मरहम कम नसीब होता दिख रहा है। शब्दों की बाजीगरी वाले बज़ट के प्रावधानों को तात्काकिक रूप से समझ पाना सरल नहीं। इससे सरकार की नीयत पर सवाल पैदा होते हैं। कथित दूरदर्शिता वाले बज़ट में निकट भविष्य को लेकर कुछ खास नहीं है। कुल मिला कर चुनावी चौसर पर उलझी सरकार का बज़ट आम जनता के दिमाग़ का दही करने वाला है। बेहतर होता यदि प्रावधान सुसंगत व सुस्पष्ट होते। जो सरकार के दावों और वादों में विरोधाभास उत्पन्न नहीं करता। बहरहाल, प्रावधानों का विस्तृत अध्ययन ज़रूरी है। जिनमे सस्ते-मंहगे उत्पादों की सूची का अवलोकन भी अहम है।
★प्रणय प्रभात★
स्वतंत्र समीक्षक