फ़ैसला कर मुख़्तसर में
कुछ न रक्खा है अगर में
फ़ैसला कर मुख़्तसर में
है मुक़द्दर आज़माना
मुझको तेरी रहगुज़र में
कल के जैसा तू नहीं है
फ़र्क़ है तेरी नज़र में
हो गया साहिल है सपना
जबसे कश्ती है भँवर में
आजकल है ध्यान सबका
दूसरों के मालो-ज़र में
बिन गवाही के यक़ीनन
न्याय भी लटका अधर में
आइना क्यूँ ढूँढ़ता है
पत्थरों के इक नगर में
ख़्वाब होगा सच ये शायद
नींद टूटी है सहर में
कितनी ख़ुशियाँ कितने ग़म हैं
ज़िन्दगी के इस सफ़र में
-डॉ आनन्द किशोर