ज़िन्दगी की किताब
जिन्दगी की किताब
जिन्दगी एक खुली किताब है
अनगिन पन्नों को
ऐसा लगता है जैसे
गूँथ दिया गया हो एक साथ।
कुछ कोरे पृष्ठ, कुछ रंगीन भी।
खुशियों से भरी कहानी, कुछ गमगीन भी।
लिखे पन्ने,अधपन्ने
पूरे और अधूरे
एक पूरा हाशिया छोड़कर
कहीं कहीं हाशिये पर भी
कुछ लिखा हुआ सा
फक रोशनी में एक धुँआ सा
गौर पृष्ठपर एकाध काली जगह
हाशिये पर,अब भी खाली जगह
उन खाली जगहों पर
कुछ लिखने की कोशिश
अर्थ का अभाव,बहु बंदिश
कुछ शब्द जुट गए
कुछ अक्षर ही टूट गए
उभरे कुछ भाव जो
मन में ही घुट गए
उन हाशिये पर ही
लिखने की कोशिश
कहीं पूरे पन्ने की सुंदरता
को तो नहीं लील गया?
कैसे कहूँ?
अब तो वे पन्ने भी न बचे
हवा का एक तेज झोंका आया
एक दिन
और पीपल के पुराने पत्तों की तरह
यह किताब भी उड़ने लगा
फरफराकर।
पिंजरे में बंद परिंदे की तरह
या कत्ल के करीब पहुँचे
उस बेबस मुनगे की तरह।
रेलमपेल करती हवा
आई और गई
मैंने देखा था उस दिन
सबसे पहले
जिन्दगी की किताब को
साबूत पड़े थे
कुछ पन्नों को छोड़कर
ये वही पन्ने थे
जिनमें मोती पिरोये गए थे।
ये मोती शब्दों के थे
एक मोती और भी पिरोये गये
ये अश्कों के थे।
विछोह में निकल पड़े अनजान।
सामने पड़ा किताब,साबूत
या,जिन्दगी को ढोती ताबूत
मैंने सच कहा है
मेरी जिंदगी एक खुली किताब है
कोरे कागज है सिर्फ
नया लिख पाने के काबिल?
उन पृष्ठों की जिक्र न करो
उनमें क्या था?
मुझे भी नहीं पता
वो तो हवा के साथ उड़ गए
मगर जायेंगे कहाँ?
कहीं तो विरमे होंगे
सच कहते हो
मैंने भी देखा
एक डाली से अटॅककर वे पन्ने
मेरे लिखे पृष्ठ,रुक गए।
टूटे पतंग को लूटने सी लालसा लिये
मैं दौड़ा था
मुझसे पहले ही मगर
वे पन्ने चुन लिए गए
देखा,एक जिल्दसाज था।
उसने कहा,ये मेरे है
सचमुच खूब फब रहे थे
वे मेरे,माफ करना
उस जिल्दसाज के पन्ने।
अपने कसीदा कढ़े
जगमगाते नए आवरण में
तसल्ली देता हूँ खुद को आज
नाम तो लिखा है जिल्दसाज
पर लिखे तो पृष्ठ मैने ही है
अक्षर अक्षर,शब्द शब्द-सब मेरे है
कॉमा और पूर्णविराम भी।
भूल बस इतनी कि
कहीं किसी पृष्ठ पर
लिखा अपना नाम नहीं ।
न कोई चिन्ह,न हस्ताक्षर।
साक्ष्यहीन स्वामित्व फिर क्यूँकर?
-©नवल किशोर सिंह