ज़िंदगी
कभी खुशी , कभी गम में ये ज़िंदगी गुज़र गई,
कभी बेफिक्री में , कभी कश्मकश़ में उलझ गई,
कभी गिले-शिक़वे किए कभी चुप रहे ,
कभी होंठ सी भी लिए कभी अश्क़ पी भी लिए ,
कभी बे-इंतिहा रूठे तो कभी पल में मान गए ,
कभी सोज़े असर से मोम सा दिल लिए पिघल गए ,
तो कभी अपनी ज़िद से पत्थरदिल बन गए ,
कभी फितरत से मजबूर हो गुस्ताख़ियां अंजाम दीं ,
कभी माहौल की संज़ीदगी की नज़र मुआफ़ियां मांग ली,
कभी सुनकर भी अनसुना कर दिया ,
कभी देख कर भी नज़रअंदाज़ कर दिया ,
कभी खुदी से हुए इस कदर बेख़बर ,
कभी खुद अपनी हस्ती को पहचान लिया ,
कभी जुल्म़ो स़ितम से टूट कर ज़िंदगी बिखर गई,
कभी हौसलों की श़िद्दत से संभल कर संवर गई ,
कभी भटकते रहे तन्हा अपने आप के सराबों में ,
तो कभी यारों संग मसर्रत की महफ़िल गुजारी शामों में ,
कभी गुम़ होकर रह गए गुम़नामी के अंधेरों में ,
तो कभी शान- ए- महफ़िल बनकर उभरे शोहरत के आसमानों में ,
रफ़्ता रफ़्ता इस तरह कुछ हमने जिंदगी गुज़ार दी,
कुछ अज़ीज़ फ़िक्रमंदों के रहमो करम से गुज़र गई,