ज़िंदगी के सफर में जब अकेला खुद को पाया
ज़िंदगी के सफ़र में
जब अकेला खुद को पाया
घुटन से जब मन घिर आया
एक प्रश्न मेरे अन्तर्रमन में आया
हर रिश्ता ईमानदारी से निभाया
कभी टूटकर,कभी समझौता करके
कभी कर्तव्य समझा तो कभी
ज़िम्मेदारी समझकर निभाया
किस्मत ने जैसा चाहा वैसा ही खुद को पाया
फ़िर भी ये मन क्यों भरमाया
क्यों है विचलित..क्यों तिलमिलाया
रिश्तो की भीड़ में
क्यों अकेला खुद को ही पाया
चारों ओर देखा तो पाया
हर कोई अपने सुख दुख में है समाया
जैसी उनकी सोच समझ परख है
वैसा ही सबने अपना रिश्ता निभाया
न समझे जब कोई हमको
अपने ही अन्तर्रमन को समझाया
हँसने पर ही जग ने अपनाया
उदासी में तो छोड़ें साथ अपनी भी काया
मन खुशी की चादर ओढ बस यूं ही मुस्कुराया
सबको जताना छोड़ दिया.
हाले दिल बताना छोड़ दिया
छोड़कर सबसे उम्मीद बस खुद को मज़बूत बनाया
अन्तर्रमन में है शोर बहुत..फिर भी खिलखिलाया
मेरा कुछ नहीं हो चाहे मोल
पर मैने कुछ अनमोल लोगों से रिश्ता ऐसे ही निभाया