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7 Feb 2021 · 1 min read

ज़ंज़ीर सी निगाहें

मुज़रिम सा कैद कर लेतीं हैं मुझको
ये तेरी ज़ंज़ीर सी निगांहें
खामोश तो बस लब हैं तेरे
इलज़ाम-ए-दीदार की सज़ा सुनाती हैं निगांहें

गुनाह ये फिर भी बदस्तूर मैंने है दोहराया
किसी को क्या मालूम
मुझे तेरी निगाहों ने ही है उकसाया
और सज़ा तूने जो दी मुझको, ‘इश्क’ करने की
मैंने खुद को उसी में ज़िंदा ही है दफनाया

इश्क़ में दफ़न होकर भी मिलीं हैं मुझको सौगातें
चाहता हूँ खुद को मैं, दफ़न-ए-कैद में रखना
ना करना आज़ाद मुझको तुम, वरना निकल जाएँगी ये साँसे
खामोश तो बस लब हैं तेरे,
इलज़ाम-ए-दीदार की सज़ा सुनाती हैं निगाहें

©®Manjul Manocha©®

4 Likes · 46 Comments · 434 Views

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