ज़ंज़ीर सी निगाहें
मुज़रिम सा कैद कर लेतीं हैं मुझको
ये तेरी ज़ंज़ीर सी निगांहें
खामोश तो बस लब हैं तेरे
इलज़ाम-ए-दीदार की सज़ा सुनाती हैं निगांहें
गुनाह ये फिर भी बदस्तूर मैंने है दोहराया
किसी को क्या मालूम
मुझे तेरी निगाहों ने ही है उकसाया
और सज़ा तूने जो दी मुझको, ‘इश्क’ करने की
मैंने खुद को उसी में ज़िंदा ही है दफनाया
इश्क़ में दफ़न होकर भी मिलीं हैं मुझको सौगातें
चाहता हूँ खुद को मैं, दफ़न-ए-कैद में रखना
ना करना आज़ाद मुझको तुम, वरना निकल जाएँगी ये साँसे
खामोश तो बस लब हैं तेरे,
इलज़ाम-ए-दीदार की सज़ा सुनाती हैं निगाहें
©®Manjul Manocha©®