ग़ज़ल
सर हमारा हर जगह झुकता नहीं
दिल हमारा लोभ में बिकता नहीं
मान जाओ बाज़ भी आ जाओ तुम
फिर न कहना यार ये सुनता नहीं
माफ़ करना मेरी फ़ितरत हैं मग़र
क्यूँ फ़रेबी को ये दिल सहता नहीं
दिल में जज़्बा है मिरे ईमान का
मैं किसी से यूँ कभी जलता नहीं
बात करता हूँ जो दिल में है मेरे
इस ज़ुबाँ में फ़र्क ये रखता नहीं
क्या हुआ हासिल बताओ खौफ से
दुश्मनी से हाथ कुछ लगता नहीं
मज़हबी बनकर भला मैं क्यूँ लड़ूँ
ये सियासी खेल कुछ जँचता नहीं
पीठ पीछे सब मुझे पागल कहे
रूबरू आकर कोई मिलता नहीं
दिल ये क्यूँ टूटा है जज़्बाती बता
टूटकर दिल कोई भी जुड़ता नहीं
जज़्बाती