ग़ज़ल
वो राहे इश्क़ में गर हमइनाँ नहीं होता
नसीब मुझपे मेरा मेहरबाँ नहीं होता
बयाँ मैं कैसे करूँ तुमसे हाले दिल अपना
जिगर का दर्द ज़बां से बयाँ नहीं होता
वो पूछता है पता मेरा, मैं बताऊं किया
जहां मैं होता हूँ अक्सर वहां नहीं होता
किसी किसी को मयस्सर है इश्तियाक़-ए-सुख़न
सभी के दिल में ये जज़्बा जवाँ नहीं होता
है कुछ न कुछ तो सबब उनकी बेरुख़ी का ज़रूर
फ़क़त गुमाँ पे कोई बद-गुमाँ नहीं होता
ज़मीन-ए-दिल पे कहाँ होती नूर की बारिश
हमारे सर पे अगर आसमां नहीं होता
हर एक ज़र्रा है वाक़िफ़ मेरे अलम से शाद
बस एक तुझपे मेरा गम अयाँ नहीं होता
शमशाद शाद, नागपुर
9767820085
शब्दार्थ….
हमइनाँ = हमराह
इश्तियाक़-ए-सुख़न = शायरी का शौक़
आलम = रंज / ग़म