ग़ज़ल
कोई मेरे दिये की लौ नहीं बुझा पायेगा
ग़ैरज़िम्मेदाराना हवा को न बदलने दो
ज़िंदगी के दर्द से जीना सीखा रहने दो
कोई हमें डर दिखाएं फैसला बदलने दो
महलों के आशियाने से भला झुग्गियाँ ये
सुकून-ए-मोहब्बत यहाँ न हमें बदलने दो
रोटियाँ सेंकती माँ थी तपिश में जलती हुई
उसी मट्टी से तो बने है हम न बदलने दो
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|| पंकज त्रिवेदी ||