ग़ज़ल:
चिराग लेके मैं खुद ही को, खोजता यारो ।
कर्ज़ के बोझ पे दिन-रात,सोचता यारो।
ज़ुल्म की आंधियों के बीच है,हॅसना सीखा,
सितम पे होके मैं बेखौफ,बोलता यारो।
बन्द सदियों से है ताले मे ,हकीकत जो भी,
अम्न के वास्ते मैं उनको, खोलता यारो।
जाग जाएं वक्त रुकता न, किसी की खातिर,
इसलिए राह सच की ओर, मोड़ता यारो।
मुझसे कुछ लोग बेवज़ह ही हैं, ख़फा लेकिन,
टूटे रिश्तों को मोहब्बत से,जोड़ता यारो।
जिन्दगी जीलें जिन्दगी को,जिन्दगी जैसी,
‘सहज’ बन्धन के दायरों को, तोड़ता यारो।
@डा०रघुनाथ मिश्र ‘सहज’
अधिवक्ता /साहित्यकार
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