ग़ज़ल:
ग़ज़ल:
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शब्द मूल्यहीन हो गया.
कथ्य शिल्पहीन हो गया.
कल तलक जो था नया – नया,
आज वो प्राचीन हो गया.
क्या तरक्कियों का दौर है,
आदमी मशीन हो गया.
हद से बढ़ गईं गिरावटें,
आसमां ज़मीन हो गया.
आम आदमी डरा – डरा,
डर भी अब युगीन हो गया.
‘सहज’ कुछ को जान की पड़ी,
कुछ को जग हसींन हो गया.
– डॉ. रघुनाथ मिश्र ‘सहज’
अधिवक्ता/साहित्यकार
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