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6 May 2022 · 1 min read

ग़ज़ल

इस ज़ीस्त के पलों को जलाने में रह गया
वो सिर्फ रुपये पैसे कमाने में रह गया

मुश्किल के दौर में न कोई देता साथ है
दौर ए ख़ुशी में इसको भुलाने में रह गया

वैरी बने हज़ार पता भी न चल सका
मैं दोस्त ज़माने में बनाने में रह गया

हर फैसले पे तेरे हमें तो गुमान था
क्यों झूठ को ही सच तू बताने में रह गया

लब से न कुछ कहा न सुना कान से कभी
नज़रों से तीर बस वो चलाने में रह गया

सागर भरा हुआ है मेरी आँख में कमल
हर बात पर मैं इसको बहाने में रह गया

2 Likes · 3 Comments · 328 Views

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