ग़ज़ल
इस ज़ीस्त के पलों को जलाने में रह गया
वो सिर्फ रुपये पैसे कमाने में रह गया
मुश्किल के दौर में न कोई देता साथ है
दौर ए ख़ुशी में इसको भुलाने में रह गया
वैरी बने हज़ार पता भी न चल सका
मैं दोस्त ज़माने में बनाने में रह गया
हर फैसले पे तेरे हमें तो गुमान था
क्यों झूठ को ही सच तू बताने में रह गया
लब से न कुछ कहा न सुना कान से कभी
नज़रों से तीर बस वो चलाने में रह गया
सागर भरा हुआ है मेरी आँख में कमल
हर बात पर मैं इसको बहाने में रह गया