ग़ज़ल
फ़क़ीरी,बादशाही के उसूलों पर नहीं चलती।
ये वो कश्ती है जो पानी की लहरों पर नहीं चलती।
क़लंदर अपनी मर्ज़ी से कहीं भी घूम सकते हैं।
ज़बरदस्ती कीसी की भी हवाओं पर नहीं चलती।
हमारे दिल को हम समझा बुझा लेते मगर भाई।
जो बच्चें ज़िद पे आ जाएँ तो बच्चों पर नहीं चलती।
मियां,सहरा नवर्दी क़ैस के हिस्से में आयी है।
के लैला फूल पे चलती है शोलों पर नहीं चलती।
मुझे मालूम है मुझ को दुआ से काम लेना है।
दवा तो कोई भी अब मेरे ज़ख्मों पर नहीं चलती।
अदब से पेश आओ ऐ जहाँ वालों दीवानों से।
दीवाने हट गए तो फिर दिवानो पर नहीं चलती।
अभी भी फैसले सारे बड़े बूढ़े ही लेते हैं।
हमारे घर में बच्चों की बुज़ुर्गों पर नहीं चलती।
बुरे दिन जो हैं मेहमाँ ज़िंदगी में चार दिन के हैं।
हुकूमत देर तक शब् की उजालों पर नहीं चलती।
जो चलती है तो बस रब की ही चलती है जहां वालों।
किसी की भी मोहम्मद के ग़ुलामों पर नहीं चलती।
तो हम सब साथ होते खुश भी होते थे बहोत”मोहसिन”।
सियासत की अगर तलवार रिश्तों पर नहीं चलती।
मोहसिन आफ़ताब केलापुरी