ग़ज़ल 2
ग़ज़ल 2
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2122 2122 2122 2
पर मेरी कलम घिसाई
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भोर हो गई है चलो सबको उठाते है।
सो रहा यह देश अब उसको जगाते है।0
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आँख लगती है मगर सोया नही जाता।
खाब दहशत के सभी को जो सताते है।1
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वोट के खातिर बनाये नीतियां सारी।
कायदे कानून सब ऐसे बनाते है।2
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देश की कोई नही नेता यहां सोचे।
निज भले को नित नई तिकड़म भिड़ाते है।3
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मुसलमान हो कोइ या फिर कोउ ईसाई।
धर्म के माफिक यह सबको लड़ाते है।4
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राजनीती के खिलाड़ी यह बड़े माहिर।
चाल चलने में सभी शातिर कहाते है।5
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जाति मजहब के किटाणू मारने होंगे।
आज हम मिलकर कसम यारा उठाते है।6
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सो रहा जो देश निद्रा में जगाओ तो।
नींद छुड़वाकर चलो इनको बताते है।7
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जान बाक़ी है अभी हम देशवालों में।
होंसला ऐसा बढ़ो इनको दिखाते है।8
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बाल भी बांका नही कर कोई सक़ता जी।
देश का देखो वतन को हम बचाते है।9
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—–मधुगौतम—–
— कोटा राजस्थान—