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2 Mar 2020 · 1 min read

ग़ज़ल

———ग़ज़ल——–

वो हमें बारहा आज़माते रहे
हम मगर उनसे उल्फ़त जताते रहे

डरते हैं रू ब रू आने से वो मगर
रोज़ ख़्वाबों में जो आते जाते रहे

खार ही बोया उसने मेरी राह में
जिसकी ख़ातिर ये दिल हम बिछाते रहे

बेरुख़ी है उन्हें बस हमीं से मगर
ग़ैर से जो सदा मुस्कुराते रहे

कितना बेरहम है बे मुरव्वत सनम
जिसपे जानो जिगर हम लुटाते रहे

ख़ुश रहें वो हमें भूल कर हम मगर
याद में उनकी आँसू बहाते रहे

दरमियाँ नफ़रतों की खड़ी हो गई
हम वो दीवार “प्रीतम” गिराते रहे

प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती(उ०प्र०)

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