ग़ज़ल
ज़िंदगी ने इस क़दर रूलाया है
सारे ख्वाबों को हमने जलाया है
ऐसा था हमारी बेबसी का आलम
पतझड़ में भी शाख़ों को हिलाया है
देखो सुक़ून से सोया है वो बच्चा
लगता है उसकी मां ने सुलाया है
ना जाने क्यों रो रही है ये बुढ़िया
मैंने जबसे इसे खाना खिलाया है
मुसलमान महफूज़ नहीं यहां
गद्दार ने यह भ्रम फैलाया है
उसका ही सपोला डसेगा तुझको
दूध जिस सांप को तूने पिलाया है
उसी शहर में बेगाने बने हम
जिसकी गलियों में गुल खिलाया है
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:- आलोक कौशिक
संक्षिप्त परिचय:-
नाम- आलोक कौशिक
शिक्षा- स्नातकोत्तर (अंग्रेजी साहित्य)
पेशा- पत्रकारिता एवं स्वतंत्र लेखन
साहित्यिक कृतियां- प्रमुख राष्ट्रीय समाचारपत्रों एवं साहित्यिक पत्रिकाओं में दर्जनों रचनाएं प्रकाशित
पता:- मनीषा मैन्शन, जिला- बेगूसराय, राज्य- बिहार, 851101,
अणुडाक- devraajkaushik1989@gmail.com