ग़ज़ल
ग़ज़ल
महराबदार जालियाँ आले कहाँ गये ।
दर औ दीवार घर घरवाले कहाँ गये।।
हमने यहीं पर की थी अठखेलियां कभी।
गुमसुम उदास डाल कर ताले कहाँ गये।।
बेनूर ये दरीचे रौजन और मकां हुए ।
मेरी जिंदगी को ढाले पाले कहाँ गये।।
कुछ दूर वायीं जानिब मक़तब ये मग्मून।
कांधे पे बोझ मुस्तक़बिल सम्भाले कहाँ गये ।।
छूटे हुए मकान में ढूंढूं मैं नक़्शे पा ।
पग पग पे पीछे आने वाले कहाँ गये।।
निन्यानवे के फेर ‘मीरा ‘उलझा हुआ जहां।
सौ सौ जो कल निकाले सम्भाले कहाँ गये ।।
दरीचे _खिड़कियां रौजन _रौशन दान
मक़तब _पाठशाला मग्मूम _उदास
मुस्तक़बिल भविष्य नक़्शे पापांव के निशान
जहां _संसार
मीरापरिहार “मंजरी आगरा ,उत्तर प्रदेश
मौलिक स्वरचित