ग़ज़ल
खुली हवा में , खुला सर , तुम्हें भी ख़तरा है।
ज़रा सा दिल में रखो डर , तुम्हें भी ख़तरा है।
हैं चार सिम्त लुटेरे ज़रा संभल के रहो।
घरों के बंद रखो दर , तुम्हें भी ख़तरा है।
किसी ने बात ही इसकी सुनी नहीं , वरना।
बता गया था क़लन्दर , तुम्हें भी ख़तरा है।
मदद को आओ मेरी ए पड़ोसियों मेरे।
के जल रहा है मेरा घर , तुम्हें भी ख़तरा है।
जुनूँ के हाथ में पत्थर है अब के ए मोहसिन।
बचा के तुम भी रखो सर , तुम्हें भी ख़तरा है।
मोहसिन आफ़ताब केलापुरी