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2 Aug 2018 · 1 min read

ग़ज़ल

खुली हवा में , खुला सर , तुम्हें भी ख़तरा है।
ज़रा सा दिल में रखो डर , तुम्हें भी ख़तरा है।

हैं चार सिम्त लुटेरे ज़रा संभल के रहो।
घरों के बंद रखो दर , तुम्हें भी ख़तरा है।

किसी ने बात ही इसकी सुनी नहीं , वरना।
बता गया था क़लन्दर , तुम्हें भी ख़तरा है।

मदद को आओ मेरी ए पड़ोसियों मेरे।
के जल रहा है मेरा घर , तुम्हें भी ख़तरा है।

जुनूँ के हाथ में पत्थर है अब के ए मोहसिन।
बचा के तुम भी रखो सर , तुम्हें भी ख़तरा है।

मोहसिन आफ़ताब केलापुरी

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