ग़ज़ल/ज़माने से डरती है
वो अपने दिल का हाल बताने से डरती है
मुझे तड़पाती है दिन रैन,ख़ुद को तड़पाने से डरती है
कहती है हर लफ्ज़ मोतियों सा पिरो पिरोके
मग़र कुछ लफ्ज़ पेचीदा, वो ज़ुबा पे लाने से डरती है
छुपाते छुपाते उसने ज़ख्म नासूर कर लिए हैं
मैं सिलना भी चाहूँ ग़र,वो ज़ख्म सिलवाने से डरती है
कई रोज़ मैं चाँदनी रातों में उसकी राह तकता हूँ
बड़ा शर्माती है,वो चाँदनी मेरी छत पर आने से डरती है
मैं उसके इश्क़ में जलता हूँ इक अलाव की तरह
ना जाने क्यूं ,वो ख़ुद को इश्क़-ए-अलाव में जलाने से डरती है
उसकी आँखों में मुझें गहरा सा समन्दर दिखता है
हाय उसके चिलमन ,वो मुझसे नज़र उतरवाने से डरती है
यूँ तो सब लिक्ख डालूँ मैं,अपनी वफ़ा के अफ़साने
वो किसी और की हो जाएगी, इसीलिए मेरे हर अफ़साने से डरती है
ऐसा लगता है सुबह की पिघलती ओस की बूंद है वो
मैं छूने की ख़्वाहिश करूँ तो वो पिघल जाने से डरती है
छुप छुपकर देखती तो होगी वो भी तस्वीर मेरी
वो सामने आने से डरती है नज़र से नज़र मिलाने से डरती है
ना जात देखा करती है, ना मज़हब देखती है वो
इक रब देखती है ,वो दिलरुबा फ़िर भी ज़माने से डरती है
~अजय “अग्यार