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4 Dec 2018 · 1 min read

ग़ज़ल/हम फ़िरदौस में थे

कल रात हम महबूबा की आगोश में थे
लब अंगारें थे पैर सर्पीले हम ना होश में थे

उसकी हर चुंबन ने फौलाद पिघाल रक्खा था
मेरा ज़िगर, ज़ेहन ,बाजू सब के सब जोश में थे

वल्लाह उसकी वो आँखें उसकी गर्म गर्म साँसें
उफ्फ़ सुरूर-ए-अहद-ए-शबाब हम फ़िरदौस में थे

दो जिस्मों का आलम बुरा इससे ज़ियादा क्या होता
भीगकर जैसे ओस में थे निगाहें करम ख़ामोश में थे

किसी रस्सी के जैसे लिपटें थे दो बदन इक दुज़े से
वो बिस्तर ,चादर, तकिया बेचारे सब अफ़सोस में थे

~अजय “अग्यार

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