ग़ज़ल/हमें गुदड़ी दशहरे के मेलें क्या
हमें ये गुदड़ी दशहरे के मेले क्या
ये अंजुमन क्या,ये महके चमन,ये बेलें क्या
हम अपनी भूख प्यास सब दिल में रखते हैं
ये नुक्कड़ों पे फ़िर चाट-सरबतों के ठेलें क्या
कहीं औऱ ही चले जाते हैं क़दम ये जुदा
फ़िर हमें ये बेफ़िज़ूल ,बेमतलब के रेलें क्या
हैं फ़कत इन आँखों में कुछ ख़्वाब सुनहरें
सुकूँ की तलाश में हैं ज़र्रा ज़र्रा तो झमेलें क्या
ख़्वाबों का इक़ कारवाँ हमारे साथ साथ चलता है
हम लम्बी कतारों में ख़्वाबों के बाजारों में अकेले क्या
~अजय “अग्यार