ग़ज़ल:- वक़्त का मुसाफ़िर
वक़्त का मुसाफ़िर मैं, वक़्त का मुहाजिर मैं ।
वक़्त कब फना कर दे, मंबअ-ए-अनासिर मैं ।।
नाचता ही रहता हूँ, वक़्त के इशारों पर ।
क़ैद-ए-जिंदगी में हूँ, बेबसी का ताइर मैं ।।
मुझ हक़ीर से हटिये दूर, ऐ जहाँ वालों ।
आप क्या समझते हैं, क्या कोई हूँ नादिर मैं ।।
फ़ैसला मुकद्दर का, कुछ असर जफ़ा का भी ।
सो तबाही पहुंचा हूँ, दर तेरे बिल-आखिर मैं ।।
इस सबब भी पढ़ता हूँ फातिहा दिल-ए-मदफ़न ।
क़ब्र-ए-आरजू का हूँ, तन्हा सा मुजाबिर मैं ।।
इस क़दर बदन अपना, मत दिखा मुझे जानाँ ।
हूँ मुजाहिदे उल्फत, हुस्न का न ताजिर मैं ।।
मुंतज़िर हूँ मैं अब भी, इक तेरी सदा का बस ।
क़ब्र से भी हो जाऊँ तेरे दर पर हाज़िर मैं ।।
इश्क़ बंदगी समझा, फिर भी शिर्क का इल्ज़ाम ।
बेसबब ही कहलाया, मौलवी से काफ़िर मैं ।।
मैं मुआफी गलती की माँगता भी तो कैसे ।
हद अनापरस्ती और, उसपे इक शाइर मैं ।।
कह रहा है साहिल ये, तंग आ समुन्दर से ।
ज़िन्दगी से हो जाऊँ, बोल गैर-हाज़िर मैं ।।