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19 Aug 2020 · 1 min read

ग़ज़ल:- वक़्त का मुसाफ़िर

वक़्त का मुसाफ़िर मैं, वक़्त का मुहाजिर मैं ।
वक़्त कब फना कर दे, मंबअ-ए-अनासिर मैं ।।

नाचता ही रहता हूँ, वक़्त के इशारों पर ।
क़ैद-ए-जिंदगी में हूँ, बेबसी का ताइर मैं ।।

मुझ हक़ीर से हटिये दूर, ऐ जहाँ वालों ।
आप क्या समझते हैं, क्या कोई हूँ नादिर मैं ।।

फ़ैसला मुकद्दर का, कुछ असर जफ़ा का भी ।
सो तबाही पहुंचा हूँ, दर तेरे बिल-आखिर मैं ।।

इस सबब भी पढ़ता हूँ फातिहा दिल-ए-मदफ़न ।
क़ब्र-ए-आरजू का हूँ, तन्हा सा मुजाबिर मैं ।।

इस क़दर बदन अपना, मत दिखा मुझे जानाँ ।
हूँ मुजाहिदे उल्फत, हुस्न का न ताजिर मैं ।।

मुंतज़िर हूँ मैं अब भी, इक तेरी सदा का बस ।
क़ब्र से भी हो जाऊँ तेरे दर पर हाज़िर मैं ।।

इश्क़ बंदगी समझा, फिर भी शिर्क का इल्ज़ाम ।
बेसबब ही कहलाया, मौलवी से काफ़िर मैं ।।

मैं मुआफी गलती की माँगता भी तो कैसे ।
हद अनापरस्ती और, उसपे इक शाइर मैं ।।

कह रहा है साहिल ये, तंग आ समुन्दर से ।
ज़िन्दगी से हो जाऊँ, बोल गैर-हाज़िर मैं ।।

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