ग़ज़ल:- वो बेहद हठधर्मी थी…
वो बेहद हठधर्मी थी।
या उसकी बेशर्मी थी।।
हमबिस्तर थी वो मेरे।
तो सर्दी में गर्मी थी।।
बहशीपन था आँखों में।
पर साँसों में नरमी थी।।
अकड़ मकड़ सब टूट गई।
जब दुल्हन बन शर्मी थी।।
प्यार का पाठ न पढ़ पायी।
‘कल्प’ मेरी सहकर्मी थी।।
✍? अरविंद राजपूत ‘कल्प’