ग़ज़ल- बंजर में जैसे फूल निकलते कभी नहीं
ग़ज़ल- ये स्वप्न…
मापनी- 221 2121 1221 212
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ये स्वप्न मेरे’ स्वप्न हैं’ फलते कभी नहीं।
बंजर में’ जैसै’ फूल निकलते कभी नहीं।।
उपदेश दे रहे हैं’ हमें रोज क्या कहें,
सच्चाइयों की’ राह जो’ चलते कभी नहीं।
माना यहाँ है’ रात कहीं धूप है मगर,
ये टिमटिमा रहे हैं’ जो’ ढलते कभी नहीं
कितनी बड़ी है’ भूल जरा आप सोचिये
चीनी का’ उनको’ रोग टहलते कभी नहीं
जो पाव लड़खड़ाए’ तो’ गिरना है’ सोच लो
ऊँचाइयों की’ ओर फिसलते कभी नहीं
‘आकाश’ हौसलों की’ भले बात लाख हो
पर वक्त के मा’रे तो’ सं’भलते कभी नहीं
– आकाश महेशपुरी
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नोट- मात्रा पतन के लिए चिह्न (‘) का प्रयोग।