ग़ज़ल- बहुत दौलत जुटा कर भी हमें सब छोड़ जाना है
ग़ज़ल- बहुत दौलत जुटा कर भी …
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ये कलयुग है यहाँ तो पाप को मिलता ठिकाना है
कि सच मैं बोल कर टूटा बड़ा झूठा जमाना है
यहाँ पर पाप हैं करते कि हम औ आप हैं करते
बहुत दौलत जुटा कर भी हमें सब छोड़ जाना है
न पूछो हाल कैसे हो गुजारा हो रहा कैसे
मेरी मजबूरियों पे क्या तुझे फिर मुस्कुराना है
हैं यादें आज भी मेरा कलेजा चीर देतीं जो
वही यादें बचीं मुश्किल जिन्हें अब भूल पाना है
भला ‘आकाश’ तुमसे हम शिकायत किसलिए करते
तुम्हारा काम जब केवल सभी का दिल दुखाना है
– आकाश महेशपुरी