ग़ज़ल /मेरी शरारत समझ लेना
तेरे सज़दे में मेरे हर अल्फ़ाज़ को, तेरी सिफ़त समझ लेना
जब कोई ठंडी हवा का झोंका तुझे छू जाए, उसे मेरा ख़त समझ लेना
हो जाऊँ ग़र नाराज़ भी, नाराज़गी को मोहब्बत समझ लेना
जो तुझें बार बार दोहराऊं महबूबा, मेरी शरारत समझ लेना
तुझे भेजूँगा मैं लिक्ख लिक्खकर नग़मे हज़ार प्यार के
तू पढ़कर मेरे नग़मे, दरमियाँ दूरियों को क़ुर्बत समझ लेना
जन्नत, दोज़ख ,ज़ख्म, शिफ़ा सब मिल जाते हैं इश्क़ में
ऐ जाने ज़िगर तुझे भी हो जाए इश्क़ तो जन्नत समझ लेना
तेरे मुस्करानें भर से दो आँखें, इक जिस्म ,इक जाँ ज़िंदा है
जो तू ना मुस्कराये किसी दिन तो उस दिन फुरक़त समझ लेना
मैं इक ही नज़्म को बार बार लिक्खूँगा नए नए रूप देकर
तू मेरे हर अल्फाज़ को मौसम-ए-बहार-ए-रत समझ लेना
ये मेरे हाथ इतने कोमल नहीं ,मैं तुझें फूलों से सहलाऊंगा
तेरे जिस्म को फूलों से छू छूकर बताउँगा तो हरक़त समझ लेना
तू देना ग़ौर कभी मेरी मोहब्बत पर औऱ मेरी हर बात पर
जो तुझें आ जाए कभी हिचकियाँ तो मेरी करवट समझ लेना
~अजय “अग्यार