ग़ज़ल- मिलती खुशियाँ नहीं ज़माने से
ग़ज़ल- मिलती खुशियाँ नहीं ज़माने से
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मिलतीं खुशियाँ नहीं ज़माने से,
मांग लेता हूँ मैं वीराने से।
बाप माँ तो खुदा सरीखे हैं,
बाज आओ इन्हें रुलाने से।
आग छप्पर की हम बुझा देते,
दिल की बुझती कहाँ बुझाने से।
काश इनको छुपा लिया होता,
ज़ख्म गहरे हुए दिखाने से।
जब भी फुरसत की बात होती है,
याद आते हैं दिन पुराने से।
ये जो बदनामियों के धब्बे हैं,
क्या ये धुलते कभी नहाने से?
सीखो ‘आकाश’ खुद खड़े होना,
कोई उठता नहीं उठाने से।
– आकाश महेशपुरी
दिनांक- 23/06/2019