ग़ज़ल- मंज़र नहीं देखा
ग़ज़ल- मंज़र नहीं देखा
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भीतर की हलचलों का वो मंज़र नहीं देखा
सबने मुझे देखा मेरे अंदर नहीं देखा
पत्थर की तरह लोग समझते रहे उसे
हीरे को जौहरी ने भी छूकर नहीं देखा
हँसते हुए ही तो मुझे देखा है रात-दिन
अश्कों का मेरे तूने समंदर नहीं देखा
घायल जो मैं हुआ हूँ तो इल्ज़ाम दूँ किसे
मैनें किसी के हाँथ में पत्थर नहीं देखा
मंजिल के वास्ते सदा भटका हूँ दर-ब-दर
सो कर महज़ यूँ स्वप्न ही सुंदर नहीं देखा
“आकाश” हँस रहे हो क्यूँ बेबस गरीब पर
क्या तुमने भी बदलता मुक़द्दर नहीं देखा
– आकाश महेशपुरी
दिनांक- 02/10/2019