ग़ज़ल बेरंग जिंदगी
पेश आज की सुबह का गर्मा गर्म नाश्ता एक गजल
बेरंग जिंदगियां रंगीनियों का आशियाना ढूँढती है
उदासी के आलम में तरन्नुम का जमाना ढूँढती है
जिस्म को चटकाती हुई खूब सूरत कलियाँ हज़ार
बदकिस्मती लिये यारों में से एक दीवाना ढूँढती है
दिल करें उसे कैद करके रख लूँ उम्र भर दिल में
जो अपनी अंखियो के तीरों का निशाना ढूँढती है
अजनबी जिंदगी तू आज जानी पहचानी लगी है
निग़ाहों मिला कर जवाब दे,क्या बहाना ढूँढती है
राहें इश्क में गुमशुदा ना हो जायें कही हमनशीं
धड़कनो की तरह मेरे दिल में,यूँ ठिकाना ढूँढती है
तेरे सितम की हर लहर टकरा गई आ कर मुझसे
क्यों शमां की तरह जल,पागल परवाना ढूँढती है
गमें आसमाँ में उठे उसकी यादो के बादल आज
दिल के सहरा में प्यासे बेताब सी मैखाना ढूँढती है
अशोक ये हिज्र के मौसम में सुर्ख़ होठों के प्याले
कभी ना करना ये इश्क ,गजल में ब्याने ढूँढती है
अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से
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