ग़ज़ल- सितमगर तो मेरा ही यार निकला
ग़ज़ल- सितमगर तो मेरा ही यार निकला
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नहीं सोचा वही हर बार निकला
सितमगर तो मेरा ही यार निकला
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मुहब्बत से भरीं आँखें ये तेरी
लबों से क्यूँ मगर इंकार निकला
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मुझे मिलती यकीनन आज मंजिल
किनारा ही मगर मझधार निकला
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कलेजा ही हमारा फट गया ये
कि जबसे फूल है अंगार निकला
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हँसाता एक बन्दा जो सभी को
हकीकत में बहुत बेजार निकला
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जिसे ‘आकाश’ कहते थे भवँर है
वही बस एक है पतवार निकला
– आकाश महेशपुरी