ग़ज़ल/दाग़ ए जुदाई
हम जो तन्हाई में रो लें तो कम
दाग ए रूसवाई धो लें तो कम
उनकी चाह में खंडहर हो जाएं
मरजाने फिदाई हो लें तो कम
बाम-ए-रफ़ाक़त वो कब समझेंगे
ख़िलवत-ए-ग़म जो बो लें तो कम
ये रोज़ रोज़ चश्म ए तर इस क़दर
गर दाग़ ए जुदाई जो लें तो कम
~अजय “अग्यार