ग़ज़ल/घर चौखट दरीचे सब पीछे छूट गए हैं
वो घर का आँगन चौखट दरीचे सब पीछे छूट गए हैं
कि मेरे आँसू भी अपनों की फ़ितरत पे सूख गए हैं
ग़ैर रिश्तें टूट जाते अगर तो शिक़ायत भी करते
अब क्या शिक़ायत करें ख़ून ही के रिश्तें टूट गए हैं
ज़िन्दगी के हिसाब लगा लिए कि बेहिसाब लगा लिए
अपने थे कुछ रिश्तें बुलबुले थे जो पानी के फूट गए हैं
इतनी जल्दी जल्दी होगा बंटवारा ये उम्मीद ना थी
फ़िर भी सम्भाले हुए हैं हम ख़ुद को कितने रूठ गए हैं
इक कर्ज़ माँ का है हमपर इक कर्ज़ हमपर पिता का है
कैसे उतारेंगे वो कर्ज़ हमें तराशने में उनके वज़ूद गए हैं
ये सोचकर जाँ में जाँ है हमारी,बस उनके लिए ज़िंदा हैं
औऱ ये मुमकिन नहीं कि जहन्नुम में हमसे ख़ुलूस गए हैं
~अजय “अग्यार