ग़ज़ल /गीतिका
ग़ज़ल
अवाम में सभी जन हैं इताब पहने हुए
सहिष्णुता सभी की इजतिराब पहने हुए |
गरीब था अभी तक वह, बुरा भला क्या कहें
घमंडी हो गया ताकत के ख्याब पहने हुए |
मसलना नव कली को जिनकी थी नियत, देखो
वे नेता निकले हैं माला गुलाब पहने हुए |
अवैध नीति को वैधिक बनाना है धंधा
वे करते केसरिया कीनखाब पहने हुए |
शबे विसाल की दुल्हन को इंतज़ार रहा
शबे फिराक हुई इजतिराब पहने हुए |
शबे दराज़ तो बीती बिना पलक मिला कर
सनम नहीं कहीं भी तो सराब पहने हुए |
शब्दार्थ :
इताब –गुस्सा ; इजतिराब –बेचैनी
कीनखाब – रेशमी वस्त्र ,कपड़ा ; सराब – मृग मरीचिका ,भ्रम
शबे विसाल – मिलन की रात: शबे फिराक – विरह की रात
शबे दराज़ –लम्बी रात
© कालीपद ‘प्रसाद’