ग़ज़ल:- कहीं खुशियां, कहीं मातम।
दोस्तो,
नये साल का आगमन हो रहा है सभी लोग उम्मीद करते है अब हमारा अपना कोई किसी से बिछड कर न जाऐगा,,,!!!
इसी आशा के साथ बुरे वक्त की परछाईं को
मैने ग़ज़ल “कहीं खुशियां,कहीं मातम” के माध्यम से बयां किया है।
इस नाचीज को अपनी दुआओं की आवश्यकता है।।।
ग़ज़ल
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कहीं खुशियां, कहीं मातम।
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जिधर देखे ऊधर सब थे परेशां बिते साल मे,
किसी को फुर्सत नही, है कौन किस हाल मे।
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कहीं खुशियां,कहीं मातम डरे डरे थे साल मे,
कंधो पे अर्थियां ले के जुदाई के थे मलाल मे।
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बेरंन बनी वबा घर घर मे पांव पसार लिऐ थे,
कब जाऐगी ये बला बुरे फसे थे सब जाल मे।
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कहीं कमी नही थी कोई करे मदद गुहार की
जब आऐ थे मसीहा इंसानियत की खाल मे।
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जिंदा रहे इंसानियत ये सोच के सब लगे रहे,
न थके,न डरे भूखे प्यासे लगे रहे हर हाल मे।
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मुश्किल भरा ये दौर अब गुजर रहा है “जैदि”
भूली बिसरी छोड़ यादे फिर होंगे खुशहाल मे।
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मायने:-
वबा:-महामारी
शायर:-“जैदि”
एल.सी.जैदिया “जैदि”
बीकानेर (राजस्थान)