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28 Nov 2020 · 1 min read

ग़ज़ल- हमारी जीविका ही वो सितमगर छीन लेता है

ग़ज़ल- हमारी जीविका ही वो सितमगर छीन लेता है
■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■■
कभी रोटी कभी कपड़े कभी घर छीन लेता है
हमारी जीविका ही वो सितमगर छीन लेता है

महल के वास्ते ज़ुल्मों सितम की इन्तेहाँ देखो
लगा कर आग मुफ़लिस का वो छप्पर छीन लेता है

चमन को तुम बचाना ऐ मेरे भाई सुनो उससे
वो फूलों की नज़ाकत को मसलकर छीन लेता है

नहीं तुम हाँथ फैलाना किसी भी शख़्स के आगे
कि जो देता वही सम्मान अक्सर छीन लेता है

नहीं पूरे दिया करता उन्हें पैसे पसीने के
निवाले भी गरीबों से उलझकर छीन लेता है

हमारा हक नहीं ‘आकाश’ देतीं हैं ये सरकारें
जो बचता है उसे ज़ालिम मुकद्दर छीन लेता है

-आकाश महेशपुरी
दिनांक- 28/11/2020

5 Likes · 3 Comments · 606 Views
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