ग़ज़ल- कभी रुलाती है ज़ख़्म देकर…..
ग़ज़ल- कभी रुलाती है ज़ख़्म देकर…..
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कभी रुलाती है ज़ख़्म देकर कभी गले से लगा रही है
उसे समझना है यार मुश्किल जो मेरी उलझन बढ़ा रही है
नहीं सभी कुछ यहाँ मुहब्बत क्यूँ इसके पीछे हुआ दिवाना
मैं चाहता हूँ उसे भुला दूँ मगर वो सपने दिखा रही है
न चैन मिलता अगर हुआ तो ये प्यार जैसे सजा है कोई
इधर हमारी बुरी है हालत उधर सनम मुस्कुरा रही है
उसे भी सच में है प्यार मुझसे मगर कहा ही नहीं अभी तक
नज़र तो उसकी बता रही थी न जाने क्यूँ फिर छुपा रही है
हज़ार धोके तू खा चुका है बनेगा ‘आकाश’ कब सयाना
समझ न पाया कभी किसी को यही तो तेरी ख़ता रही है
– आकाश महेशपुरी
दिनांक- 04/03/2021
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★बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला
मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन
1212 212 122 1212 212 122