ग़ज़ल- कभी आश़िक कभी मामा, कभी सजना बना चंदा
कभी आश़िक कभी मामा, कभी सजना बना चंदा।
लुभाता है ज़माने को, मुहब्बत से भरा चंदा।।
सुहागिन पूजती इसको, अटल सौभाग्य की ख़ातिर।
करे सौभाग्य की रक्षा, ये करवा चौथ का चंदा।।
दमकता भाल पर शिव के, करे शोभित सदाशिव को।
यही बरसाता अमृत भी, शरद पूनम भरा चंदा।।
अलंकृत होती जब सजनी,जो आशिक़ चाँद कह दे तो।
यूँ आशिक को लुभाता चौदहवीं के चाँद का चंदा।।
जो बचपन मे रहा मामा, जवानी में बना प्रीतम।
बुढ़ापे में दिखा धब्बा, है कितने रूप का चंदा।।
हैं आते ज्वार भाटे भी, समुंदर में कलाओं से।
सभी पंचाग बनते हैं, बताता है दशा चंदा।।
हो हिंदू या मुसलमा सब, इबादत करते हैं इसकी।
गले सब ‘कल्प’ मिलते हैं, निकलता ईद का चंदा।।
✍?अरविंद राजपूत ‘कल्प’