ग़ज़ल- इक़ ख़्वाब दिल में पल रहा…
इक़ ख़्वाब दिल में पल रहा।
हर दौड़ में अब्बल रहा।।
अब जीतता है बस वही।
वैसाखियों पे चल रहा।
मत बोलिये अब सच यहाँ।
बस झूठ ही तो फल रहा।।
छलता रहा दिन रात जो।
वो छलिया बन निश्छल रहा।।
है केंचुआ भी धन्य वो।
जो मछलियों का गल रहा।।
घर गैर का रोशन करे।
दीपक सरीखा जल रहा।।
दलदल दलों में मच गयी।
इक़ ‘कल्प’ ही निर्दल रहा।।
?कल्प की✍?से
बह्र- रजज मुरब्बा सालिम
अरकान- मुस्तफएलुन मुस्तफएलुन
वज्न- 2212 2212