ग़ज़ल:- इसी मकाँ में कभी आशियाँ हमारा था
इसी मकाँ में कभी आशियाँ हमारा था।
थी झोपड़ी वो मग़र जीने का सहारा था।।
मेरी नज़र में वो मानिंद-ए-ताज सा लगता।
अमीर ए शह्र की नज़रों में वो शरारा था।।
बना था दलदली बस्ती में घासफूसों से।
दुखों की झील में वो तैरता शिकारा था
फ़क़त ग़रीबी थी घर प्यार से था यूं रोशन ।
ग़रीबी में भी तो जन्नत सा इक़ नज़ारा था।।
हो धूप सर्दी या बरसात का कोई मौसम।
उसी ने ‘कल्प’ हमेशा दिया सहारा था।।
✍? अरविंद राजपूत ‘कल्प’
बह्र – मुज्तस मुसम्मन मख़्बून महज़ूफ
अर्कान – मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
वज़न-1212 1122 1212 22