ग़ज़ल-इलाज़ रो रहा कहीं हक़ीम खुद बीमार हैं
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कुढी हुई है सभ्यता कमी रही विचार की ।
चली हुकूमतें यहाँ तभी तो दाग़दार की ।
सदा डरी है सत्यता बुरा बड़ा बना रहा ।
बुराइयों में दब गई वो कोशिशें हज़ार की ।
बेरोक टोक चल रही तमाम जालसाजियां ।
आवाज़ मूक हो रही वो न्याय के पुकार की ।
यूँ काग़ज़ी धरा धरी शिकायतें निपट गयीं ।
अदालतें ही खा गयीं गुहार कामगार की ।
निभी न दोस्ती कभी हवस हवस बनी रही ।
धुँआँ धुँआँ पड़ी रही ख़ुमारियाँ वो प्यार की ।
इलाज़ रो रहा कहीं हकीम ख़ुद बीमार हैं ।
मरीज़ कर रहे दवा दुआ चुकी मज़ार की ।
कि जिंदगी को है मिला ईनाम मौत का मग़र ।
समझ सका न आदमी ये साँस है उधार की ।
– #रकमिश सुल्तानपुरी
#सुल्तानपुर